12-09-2021 -”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन मुरली

12-09-2021प्रात: मुरली ओम् शान्ति   ”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन रिवाइज:19-03-88

“‘याद’ में रमणीकता लाने की युक्तियाँ”

आज विधाता, वरदाता बापदादा अपने मास्टर विधाता, वरदाता बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चा विधाता भी बने हो तो वरदाता भी बने हो। साथ-साथ बापदादा देख रहे थे कि बच्चों का मर्तबा कितना महान् है, इस संगमयुग के ब्राह्मण जीवन का कितना महत्व है! विधाता, वरदाता के साथ विधि-विधाता भी आप ब्राह्मण हो। आपकी हर विधि सतयुग में कैसे परिवर्तित होती है – वह पहले सुनाया है। इस समय के हर कर्म की विधि भविष्य में चलती ही है लेकिन द्वापर के बाद भी भक्ति-मार्ग में इस समय के श्रेष्ठ कर्मों की विधि भक्तिमार्ग की विधि बन जाती है। तो पूज्य रूप में भी इस समय की विधि जीवन के श्रेष्ठ विधान के रूप में चलती है और पुजारी मार्ग अर्थात् भक्तिमार्ग में भी आपकी हर विधि नीति व रीति में चलती आती है। तो विधाता, वरदाता और विधि-विधाता भी हो।

आपके मूल सिद्धान्त सिद्धि प्राप्त होने के साधन बन जाते हैं। जैसे मूल सिद्धान्त – “बाप एक है। धर्म आत्मायें, महान आत्मायें अनेक हैं लेकिन परम आत्मा एक है”। इसी मूल सिद्धान्त द्वारा आधाकल्प आप श्रेष्ठ आत्माओं को एक बाप के द्वारा प्राप्त हुआ वर्सा सिद्धि के रूप में प्राप्त होता है। प्रालब्ध मिलना अर्थात् सिद्धि स्वरूप बनना क्योंकि एक बाप है, बाकी महान आत्मायें वा धर्म आत्मायें हैं, बाप नहीं है, भाई-भाई हैं। वर्सा बाप से मिलता है, भाई से नहीं मिलता। तो इस मूल सिद्धान्त द्वारा आधाकल्प आपको सिद्धि प्राप्त होती है और भक्ति में भी ‘गॉड इज वन’ – यही सिद्धान्त सिद्धि प्राप्त करने का आधार बनता है।

भक्ति का आदि आधार भी एक बाप के शिवलिंग रूप से आरम्भ होता है जिसको कहा जाता है ‘अव्यभिचारी भक्ति’। तो भक्तिमार्ग में भी इसी एक सिद्धान्त द्वारा ही सिद्धि प्राप्त होती है कि बाप एक है। ऐसे जो भी आपके मूल सिद्धान्त हैं, उस एक-एक सिद्धान्त द्वारा सिद्धि प्राप्त होती रहती है। जैसे इस जीवन का मूल सिद्धान्त पवित्रता है। इस पवित्रता के सिद्धान्त द्वारा आप आत्माओं को भविष्य में सिद्धि स्वरूप के रूप में लाइट का ताज सदा ही प्राप्त है, जिसका यादगार-रूप डबल ताज दिखाते हैं और भक्ति में भी जब भी यथार्थ और दिल से भक्ति करेंगे तो पवित्रता के सिद्धान्त को मूल आधार समझेंगे और समझते हैं कि सिवाए पवित्रता के भक्ति की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है। चाहे अल्पकाल के लिए, जितना समय भक्ति करते हैं, उतना समय ही पवित्रता को अपनायें लेकिन ‘पवित्रता ही सिद्धि का साधन है’ – इस सिद्धान्त को अपनाते अवश्य हैं। इसी प्रकार हर एक ज्ञान का सिद्धान्त वा धारणा का मूल सिद्धान्त बुद्धि से सोचो कि हर एक सिद्धान्त सिद्धि का साधन कैसे बनता है? यह मनन करने का काम दे रहे हैं। जैसे दृष्टान्त सुनाया, इसी प्रकार से सोचना।

तो आप विधि-विधाता भी बनते हो, सिद्धि-दाता भी बनते हो इसलिए आज तक भी जिन भक्तों को जो-जो सिद्धि चाहती है, वो भिन्न-भिन्न देवताओं द्वारा भिन्न-भिन्न सिद्धि प्राप्त करने के लिए, उन्हीं देवता की पूजा करते हैं। तो सिद्धि-दाता बाप द्वारा आप भी सिद्धि-दाता बनते हो – ऐसा अपने को समझते हो ना। जिनको स्वयं सर्व सिद्धियाँ प्राप्त हैं, वहीं औरों को भी सिद्धि प्राप्त कराने के निमित्त बन सकते हैं। सिद्धि खराब चीज़ नहीं है क्योंकि आपकी रिद्धि-सिद्धि नहीं है। रिद्धि-सिद्धि जो होती है वह अल्पकाल के लिए प्रभावशाली होती है। लेकिन आपकी यथार्थ विधि द्वारा सिद्धि है। ईश्वरीय विधि द्वारा जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह सिद्धि भी ईश्वरीय सिद्धि है। जैसे ईश्वर अविनाशी है, तो ईश्वरीय विधि और सिद्धि भी अविनाशी है। रिद्धि-सिद्धि दिखाने वाले स्वयं भी अल्पज्ञ आत्मा हैं, उन्हों की सिद्धि भी अल्पकाल की है। लेकिन आपकी सिद्धि, सिद्धान्त की विधि द्वारा सिद्धि है इसलिए आधाकल्प स्वयं सिद्धि-स्वरूप बनते हो और आधाकल्प आपके सिद्धान्त द्वारा भक्त आत्मायें यथा-शक्ति तथा-फल की प्राप्ति वा सिद्धि की प्राप्ति करते आते हैं क्योंकि भक्ति की शक्ति भी समय प्रमाण कम होती आती है। सतोप्रधान भक्ति की शक्ति, भक्त आत्माओं को सिद्धि की अनुभूति आजकल के भक्तों से ज्यादा कराती है। इस समय की भक्ति तमोप्रधान भक्ति होने के कारण न यथार्थ सिद्धान्त रहा है, न सिद्धि रही है।

तो इतना नशा रहता है कि हम कौन हैं! सदा इस श्रेष्ठ स्वमान के स्थिति की सीट पर सेट रहते हो? कितनी ऊंची सीट है! जब इस स्थिति की सीट पर सेट (स्थिर) रहते हो तो बार-बार अपसेट (अस्थिर) नहीं होंगे। यह पोजीशन है ना। कितना बड़ा पोजीशन है – विधि-विधान, सिद्धि-दाता! तो जब इस पोजीशन में स्थित होंगे तो माया आपोजीशन नहीं करेंगी। सदा ही सेफ रहेंगे। अपसेट होने का कारण ही यह है कि अपनी श्रेष्ठ स्थिति की सीट से साधारण स्थिति में आ जाते हो। याद में रहना वा सेवा करना एक साधारण दिनचर्या बन जाती है। लेकिन याद में भी बैठते हो तो अपने कोई न कोई श्रेष्ठ स्वमान की सीट पर बैठो। सिर्फ ऐसे नहीं कि याद के स्थान पर, चाहे योग के कमरे में, चाहे बाबा के कमरे में बेड (बिस्तर) से उठकर बैठ गये वा सारे दिन में जाकर बैठ गये लेकिन जैसे शरीर को योग्य स्थान देते हो, वैसे पहले बुद्धि को स्थिति का स्थान दो। पहले यह चैक करो कि बुद्धि को स्थान ठीक दिया? तो ईश्वरीय नशा सीट से स्वत: ही आता है। आजकल भी ‘कुर्सी का नशा’ कहते हैं ना! आपका तो श्रेष्ठ स्थिति का आसन है। कभी ‘मास्टर बीजरूप’ की स्थिति के आसन पर, सीट पर सेट हो, कभी ‘अव्यक्त फरिश्ते’ की सीट पर सेट हो, कभी ‘विश्व-कल्याणकारी स्थिति’ की सीट पर सेट हो – ऐसे हर रोज़ भिन्न-भिन्न स्थिति के आसन पर वा सीट पर सेट होकर बैठो।

अगर किसी को भी सीट सेट नहीं होती है तो हलचल करते हैं ना – कभी ऐसा करेंगे, कभी वैसा करेंगे! तो यह बुद्धि भी हलचल में तब आती है जब सीट पर सेट नहीं होते। जानते तो सब हैं कि हम यह-यह हैं। अगर अभी ये पूछें कि आप कौन हैं, तो लम्बी लिस्ट अच्छी निकल आयेगी। लेकिन हर समय जो जानते हो, वह अपने को मानो। सिर्फ जानों नही, मानो क्योंकि जानने से सूक्ष्म में खुशी तो रहती है – हाँ, मैं यह हूँ। लेकिन मानने से शक्ति आती है और मानकर चलने से नशा रहता है। जैसे कोई भी पोजीशन वाले जब सीट पर सेट होते हैं तो खुशी होगी लेकिन शक्ति नहीं होगी। तो जानते हो लेकिन मानकर चलो और बार-बार अपने से पूछो, चेक करो कि सीट पर सेट हूँ या साधारण स्थिति में नीचे आ गया? जो औरों को सिद्धि देने वाले हैं, वह स्वयं हर संकल्प में, हर कर्म में सिद्धि स्वरूप अवश्य होंगे, दाता होंगे। सिद्धि-दाता कभी यह सोच भी नहीं सकते कि जितना पुरुषार्थ करते हैं वा मेहनत करते हैं, इतनी सिद्धि दिखाई नहीं देती है वा जितना याद में अभ्यास करते हैं, उतनी सिद्धि नहीं अनुभव होती है। इससे सिद्ध है कि सीट पर सेट होने की विधि यथार्थ नहीं है।

रमणीक ज्ञान है। रमणीक अनुभव स्वत: ही सुस्ती को भगा देता है। यह तो कई कहते हैं ना – वैसे नींद नहीं आयेगी लेकिन योग में नींद अवश्य आयेगी। यह क्यों होता है? ऐसी बात नहीं कि थकावट है लेकिन रमणीक रीति से और नैचुरल रूप से बुद्धि को सीट पर सेट नहीं करते हो। तो सिर्फ एक रूप से नहीं लेकिन वैरायटी रूप से सेट करो। वही चीज़ अगर वैराइटी रूप से परिवर्तन कर यूज़ करते हैं तो दिल खुश होती है। चाहे बढ़िया चीज़ हो लेकिन अगर एक ही चीज बार-बार खाते रहो, देखते रहो तो क्या होगा? ऐसे, बीजरूप बनो लेकिन कभी लाइट-हाउस के रूप में, कभी माइट-हाउस के रूप में, कभी वृक्ष के ऊपर बीज के रूप में, कभी सृष्टि-चक्र के ऊपर टॉप पर खड़े होकर सभी को शक्ति दो। जो भिन्न-भिन्न टाइ-टल मिलते हैं, वह रोज़ भिन्न-भिन्न टाइटल अनुभव करो। कभी नूरे रत्न बन बाप के नयनों में समाया हूँ – इस स्वरूप की अनुभूति करो। कभी मस्तकमणि बन, कभी तख्तनशीन बन.. भिन्न-भिन्न स्वरूपों का अनुभव करो। वैराइटी करो तो रमणीकता आयेगी। बापदादा रोज़ मुरली में भिन्न-भिन्न टाइटल देते हैं, क्यों देते हैं? उसी सीट पर सेट हो जाओ और सिर्फ बीच-बीच में चेक करो। पहले भी सुनाया था कि यह भूल जाते हो। 6 घण्टे, 8 घण्टे बीत जाते हैं, फिर सोचते हो इसलिए उदास हो जाते हो कि आधा दिन तो चला गया! नेचुरल अभ्यास हो जाये, तब ही विधि-विधाता वा सिद्धि-दाता बन विश्व की आत्माओं का कल्याण कर सकेंगे। समझा! अच्छा।

आज मधुबन वालों का दिन है। डबल विदेशी अपने समय का चांस दे रहे हैं क्योंकि मधुबन निवासियों को देखकर खुश होते हैं। मधुबन वाले कहते हैं महिमा नहीं करो, महिमा बहुत सुनी है। महिमा सुनते ही महान् बन रहे हैं क्योंकि यह महिमा ही ढाल बन जाती है। जैसे युद्ध में सेफ्टी का साधन ढाल होती है ना। तो यह महिमा भी स्मृति दिलाती है कि हम कितने महान है! मधुबन, सिर्फ मधुबन नहीं है लेकिन मधुबन है विश्व की स्टेज। मधुबन में रहना अर्थात् विश्व की स्टेज पर रहना। तो जो स्टेज पर रहता है, वह कितना अटेन्शन से रहता है! साधारण रीति से कोई किसी भी स्थान पर रहता है तो इतना अटेन्शन नहीं रहता है लेकिन जब स्टेज पर आयेगा तो हर समय, हर कर्म पर इतना ही अटेन्शन होगा। तो मधुबन विश्व की स्टेज है। चारों ओर की नजर मधुबन के ऊपर ही है। वैसे भी सबका अटेन्शन स्टेज की तरफ जाता है ना! तो मधुबन निवासी सदा विश्व की स्टेज पर स्थित हैं।

साथ-साथ मधुबन एक विचित्र गुम्बज है और गुम्बज जो होते हैं उसका आवाज अपने तक आता है लेकिन मधुबन ऐसा विचित्र गुम्बज है जो मधुबन का जरा-सा आवाज विश्व तक चला जाता है। जैसे आजकल के पुराने जमाने के कई ऐसे स्थान निशानी-मात्र हैं जो एक दीवार को अगर ऐसे हाथ लगायेंगे वा आवाज करेंगे तो दस दीवारों में वह आवाज आयेगा और ऐसे ही सुनाई देगा जैसे इस दीवार को कोई हिला रहा है या आवाज कर रहा है। तो मधुबन ऐसा विचित्र गुम्बज है जो मधुबन का आवाज सिर्फ मधुबन तक नहीं रहता लेकिन चारों ओर फैल जाता है। ऐसे फैलता है जो मधुबन में रहने वालों को पता भी नहीं होगा। लेकिन विचित्रता है ना, इसलिए बाहर पहुँच जाता है इसलिए ऐसे नहीं समझो कि यहाँ देखा या यहाँ बोला… लेकिन विश्व तक आवाज हवा की रफ्तार से पहुँच जाता है क्योंकि सबकी नज़रों में, बुद्धि में सदा मधुबन और मधुबन का बापदादा ही रहता है। तो जब मधुबन का बाप नजरों में रहता है तो मधुबन भी आयेगा ना! मधुबन का बाबा है तो मधुबन तो आयेगा ना और मधुबन में सिर्फ बाबा तो नहीं है, बच्चे भी हैं। तो मधुबन-वासी स्वत: ही सबकी नज़रों में आ जाते हैं! कोई भी ब्राह्मण से पूछो, चाहे कितना भी दूर रहता हो लेकिन क्या याद रहता है? ‘मधुबन’ और ‘मधुबन का बाबा’! तो इतना महत्व है मधुबनवासियों का। समझा? 

अच्छा! चारों ओर के सर्व सेवा के उमंग-उत्साह में रहने वाले, सदा एक बाप के स्नेह में समाये हुए, सदा हर कर्म में श्रेष्ठ विधि द्वारा सिद्धि को अनुभव करने वाले, सदा स्वयं को विश्व के कल्याणकारी अनुभव कर हर संकल्प से, बोल से श्रेष्ठ कल्याण की भावना और श्रेष्ठ कामना से सेवा में बिजी रहने वाले, ऐसे बाप समान सदा अथक सेवाधारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात:-

1. स्वयं को कर्मयोगी श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? कर्मयोगी आत्मा सदा कर्म का प्रत्यक्ष फल स्वत: ही अनुभव करती है। प्रत्यक्षफल – ‘खुशी’ और ‘शक्ति’। तो कर्मयोगी आत्मा अर्थात् प्रत्यक्षफल ‘खुशी’ और ‘शक्ति’ अनुभव करने वाली। बाप सदा बच्चों को प्रत्यक्षफल प्राप्त कराने वाले हैं। अभी-अभी कर्म किया, कर्म करते खुशी और शक्ति का अनुभव किया! तो ऐसी कर्मयोगी आत्मा हूँ – इसी स्मृति से आगे बढ़ते रहो।

2. बेहद की सेवा करने से बेहद की खुशी का स्वत: ही अनुभव होता है ना! बेहद का बाप बेहद का अधिकारी बनाते हैं। बेहद सेवा का फल बेहद का राज्य भाग्य स्वत: ही प्राप्त होता है। जब बेहद की स्थिति में स्थित होकर सेवा करते हो तो जिन आत्माओं के निमित्त बनते हो, उनकी दुआयें स्वत: आत्मा में ‘शक्ति’ और ‘खुशी’ की अनुभूति कराती हैं। एक स्थान पर बैठे भी बेहद सेवा का फल मिल रहा है – इस बेहद के नशे से बेहद का खाता जमा करते आगे बढ़ते चलो।

वरदान:-     सेकण्ड में देह रूपी चोले से न्यारा बन कर्मभोग पर विजय प्राप्त करने वाले सर्व शक्ति सम्पन्न भव

जब कर्मभोग का जोर होता है, कर्मेन्द्रियां कर्मभोग के वश अपनी तरफ आकर्षित करती हैं अर्थात् जिस समय बहुत दर्द हो रहा हो, ऐसे समय पर कर्मभोग को कर्मयोग में परिवर्तन करने वाले, साक्षी हो कर्मेन्द्रियों से भोगवाने वाले ही सर्व शक्ति सम्पन्न अष्ट रत्न विजयी कहलाते हैं। इसके लिए बहुत समय का देह रूपी चोले से न्यारा बनने का अभ्यास हो। यह वस्त्र, दुनिया की वा माया की आकर्षण में टाइट अर्थात् खींचा हुआ न हो तब सहज उतरेगा।

स्लोगन:-    सर्व का मान प्राप्त करने के लिए निर्मानचित बनो – निर्मानता महानता की निशानी है।

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