5-12-2021 -”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन मुरली

“सदा प्रसन्न कैसे रहें?”

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“ओम् शान्ति”

आज बापदादा चारों ओर के बच्चों को देख रहे थे। क्या देखा? हर एक बच्चा स्वयं हर समय कितना प्रसन्न रहता है, साथ-साथ दूसरों को स्वयं द्वारा कितना प्रसन्न करते हैं? क्योंकि परमात्म सर्व प्राप्तियों के प्रत्यक्षस्वरूप में प्रसन्नता ही चेहरे पर दिखाई देती है। “प्रसन्नता” ब्राह्मण जीवन का विशेष आधार है। अल्पकाल की प्रसन्नता और सदाकाल की सम्पन्नता की प्रसन्नता – इसमें रात-दिन का अन्तर है। अल्पकाल की प्रसन्नता अल्पकाल के प्राप्ति वाले के चेहरे पर थोड़े समय के लिए दिखाई जरूर देती है लेकिन रूहानी प्रसन्नता स्वयं को तो प्रसन्न करती ही है परन्तु रूहानी प्रसन्नता के वायब्रेशन अन्य आत्माओं तक भी पहुंचते हैं, अन्य आत्माएं भी शांति और शक्ति की अनुभूति करती हैं।

Fruits tree,  फलदार वृक्ष
Fruits tree, फलदार वृक्ष

जैसे फलदायक वृक्ष अपने शीतलता की छाया में थोड़े समय के लिए मानव को शीतलता का अनुभव कराता है और मानव प्रसन्न हो जाता है। ऐसे परमात्म-प्राप्तियों के फल सम्पन्न रूहानी प्रसन्नता वाली आत्मा दूसरों को भी अपने प्राप्तियों की छाया में तन-मन की शांति और शक्ति की अनुभूति कराती है। प्रसन्नता के वायब्रेशन सूर्य की किरणों समान वायुमण्डल को, व्यक्ति को और सब बातें भुलाए सच्चे रूहानी शान्ति की, खुशी की अनुभूति में बदल देते हैं।

वर्तमान समय की अज्ञानी आत्मायें अपने जीवन में बहुत खर्चा करके भी प्रसन्नता में रहना चाहती हैं। आप लोगों ने क्या खर्चा किया? बिना पैसा खर्च करते भी सदा प्रसन्न रहते हो ना! वा औरों की मदद से प्रसन्न रहते हो? बापदादा बच्चों का चार्ट चेक कर रहे थे। क्या देखा? एक हैं सदा प्रसन्न रहने वाले और दूसरे हैं प्रसन्न रहने वाले। “सदा” शब्द नहीं है। प्रसन्नता भी तीन प्रकार की देखी – (1) स्वयं से प्रसन्न, (2) दूसरों द्वारा प्रसन्न, (3) सेवा द्वारा प्रसन्न। अगर तीनों में प्रसन्न हैं तो बापदादा को स्वत: ही प्रसन्न किया है और जिस आत्मा के ऊपर बाप प्रसन्न है वह तो सदा सफलता मूर्त है ही है।

you are a soul, आप एक आत्मा हो
you are a soul, आप एक आत्मा हो

बापदादा ने देखा कई बच्चे अपने से भी अप्रसन्न रहते हैं। छोटी-सी बात के कारण अप्रसन्न रहते हैं। पहला-पहला पाठ “मैं कौन” इसको जानते हुए भी भूल जाते हैं। जो बाप ने बनाया है, दिया है – उसको भूल जाते हैं। बाप ने हर एक बच्चे को फुल वर्से का अधिकारी बनाया है। किसको पूरा, किसको आधा वर्सा नहीं दिया है। किसको आधा वा चौथा मिला है क्या? आधा मिला है या आधा लिया है? बाप ने तो सभी को मास्टर सर्वशक्तिमान का वरदान वा वर्सा दिया। ऐसे नहीं कि कोई शक्तियां बच्चों को दी और कोई नहीं दी। अपने लिए नहीं रखी। सर्वगुण सम्पन्न बनाया है, सर्व प्राप्ति स्वरूप बनाया है। लेकिन बाप द्वारा जो प्राप्तियां हुई हैं उसको स्वयं में समा नहीं सकते।

जैसे स्थूल धन वा साधन प्राप्त होते भी खर्च करना न आये वा साधनों को यूज़ करना न आये तो प्राप्ति होते भी उससे वंचित रह जाते हैं। ऐसे सब प्राप्तियां वा खजाने सबके पास हैं लेकिन कार्य में लगाने की विधि नहीं आती है और समय पर यूज करना नहीं आता है। फिर कहते – मैं समझती थी कि यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए लेकिन उस समय भूल गया। अभी समझती हूँ कि ऐसा नहीं होना चाहिए। उस समय एक सेकण्ड भी निकल गया तो सफलता की मंजिल पर पहुंच नहीं सकते क्योंकि समय की गाड़ी निकल गई। चाहे एक सेकण्ड लेट किया चाहे एक घंटा लेट किया – समय निकल तो गया ना। और जब समय की गाड़ी निकल जाती है तो फिर स्वयं से दिलशिकस्त हो जाते हैं और अप्रसन्नता के संस्कार इमर्ज होते हैं – मेरा भाग्य ही ऐसा है, मेरा ड्रामा में पार्ट ही ऐसा है।

पहले भी सुनाया था – स्व से अप्रसन्न रहने के मुख्य दो कारण होते हैं, एक दिलशिकस्त होना और दूसरा कारण होता है दूसरों की विशेषता, भाग्य वा पार्ट को देख ईर्ष्या उत्पन्न होना। हिम्मत कम होती है, ईर्ष्या ज्यादा होती है। दिलशिकस्त भी कभी प्रसन्न नहीं रह सकता और ईर्ष्या वाला भी कभी प्रसन्न नहीं रह सकता क्योंकि दोनों हिसाब से ऐसी आत्माओं की इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती और इच्छाएं “अच्छा” बनने नहीं देती इसलिए प्रसन्न नहीं रहते। प्रसन्न रहने के लिए सदा एक बात बुद्धि में रखो कि ड्रामा के नियम प्रमाण संगमयुग पर हर एक ब्राह्मण आत्मा को कोई-न-कोई विशेषता मिली हुई है। चाहे माला का लास्ट 16,000 वाला दाना हो – उसको भी कोई-न-कोई विशेषता मिली हुई है। उनसे भी आगे चलो – नौ लाख जो गाये हुए हैं, उन्हें भी कोई-न-कोई विशेषता मिली हुई है। अपनी विशेषता को पहले पहचानो। अभी तो नौ लाख तक पहुंचे ही नहीं हो।

Gain 8 powers from Rajyoga , राजयोग से 8 शक्तियो की प्राप्ति
Gain 8 powers from Rajyoga , राजयोग से 8 शक्तियो की प्राप्ति

तो ब्राह्मण जन्म के भाग्य की विशेषता को पहचानो और कार्य में लगाओ। सिर्फ दूसरे की विशेषता को देख करके दिलशिकस्त वा ईर्ष्या में नहीं आओ। लेकिन अपनी विशेषता को कार्य में लगाने से एक विशेषता फिर और विशेषताओं को लायेगी। एक के आगे बिंदी लगती जायेगी तो कितने हो जायेंगे? एक को एक बिंदी लगाओ तो 10 बन जाता और दूसरी बिंदी लगाओ तो 100 बन जायेगा। तीसरी लगाओ तो ….., यह हिसाब तो आता है ना। कार्य में लगाना अर्थात् बढ़ना। दूसरों को नहीं देखो। अपनी विशेषता को कार्य में लगाओ।

जैसे देखो, बापदादा सदा “भोली-भंडारी” (भोली दादी) का मिसाल देता है। महारथियों का नाम कभी आयेगा लेकिन इनका नाम आता है। जो विशेषता थी वह कार्य में लगाई। चाहे भंडारा ही संभालती है लेकिन विशेषता को कार्य में लगाने से विशेष आत्माओं के मिसल गाई जाती है। सभी मधुबन का वर्णन करते तो दादियों की भी बातें सुनायेंगे तो भोली की भी सुनायेंगे। भाषण तो नहीं करती लेकिन विशेषता को कार्य में लगाने से स्वयं भी विशेष बन गई। दूसरे भी विशेष नज़र से देखते। तो प्रसन्न रहने के लिए क्या करेंगे? विशेषता को कार्य में लगाओ। तो वृद्धि हो जायेगी और जब सर्व आ गया तो सम्पन्न हो जायेंगे और प्रसन्नता का आधार है -“सम्पन्नता”। जो स्व से प्रसन्न रहते वह औरों से भी प्रसन्न रहेंगे, सेवा से भी प्रसन्न रहेंगे। जो भी सेवा मिलेगी उसमें औरों को प्रसन्न कर सेवा में नम्बर आगे ले लेंगे। सबसे बड़े-ते-बड़ी सेवा आपकी प्रसन्नमूर्त करेगी। तो सुना, क्या चार्ट देखा! अच्छा!

शिवानी-दीद-मुरली-ज्ञान-SHIVANI-DIDI-MURLI-GYAN
शिवानी-दीद-मुरली-ज्ञान-SHIVANI-DIDI-MURLI-GYAN

“टीचर्स” को आगे बैठने का भाग्य मिला है क्योंकि पण्डा बनकर आती हैं तो मेहनत बहुत करती हैं। एक को सुखधाम से बुलायेंगे तो दूसरे को विशाल भवन से बुलायेंगे। एक्सरसाइज़ अच्छी हो जाती है। सेन्टर पर तो पैदल करती नहीं हो। जब शुरू में सेवा आरम्भ की तो पैदल जाती थी ना। आपकी बड़ी दादियां भी पैदल जाती थीं। सामान का थैला हाथ में उठाया और पैदल चली। आजकल तो आप सब बने-बनाये पर आये हो। तो लक्की हो ना। बने-बनाये सेन्टर मिल गये हैं। अपने मकान हो गये हैं। पहले तो जमुनाघाट पर रही थीं। एक ही कमरा – रात को सोने का, दिन को सेवा का होता था। लेकिन खुशी-खुशी से जो त्याग किया उसी के भाग्य का फल अभी खा रही हो। आप फल खाने के टाइम पर आई हो। बोया इन्होंने, खा आप रही हो। फल खाना तो बहुत सहज है ना। अब ऐसे फलस्व-रूप क्वालिटी निकालो। समझा? क्वांटिटी (संख्या) तो है ही और यह भी चाहिए। नौ लाख तक जाना है तो क्वांटिटी और क्वालिटी – दोनों चाहिए। लेकिन 16,000 की पक्की माला तो तैयार करो। अभी क्वालिटी की सेवा पर विशेष अण्डरलाइन करो।

हर ग्रुप में टीचर्स भी आती, कुमारियां भी आती हैं, लेकिन निकलती नहीं हैं। मधुबन अच्छा लगता है, बाप से प्यार भी है लेकिन समर्पण होने में सोचती हैं। जो स्वयं ऑफर करता है वह निर्विघ्न चलता है और जो कहने से चलता है वह रुकता है फिर चलता है। वह बार-बार आपको ही कहेंगे – हमने तो पहले ही कहा था सरेन्डर नहीं होना चाहिए। कोई-कोई सोचती हैं – इससे तो बाहर रहकर सेवा करें तो अच्छा है। लेकिन बाहर रहकर सेवा करना और त्याग करके सेवा करना, इसमें अन्तर जरूर है। जो समर्पण के महत्व को जानते हैं वह सदा ही अपने को कई बातों से किनारे हो आराम से आ गये हैं, कई मेहनत से छूट गये।

तो टीचर्स अपने महत्व को अच्छी रीति जानती हो ना? नौकरी और यह सेवा – दोनों काम करने वाले अच्छे वा एक काम करने वाले अच्छे? उन्हों को फिर भी डबल पार्ट बजाना पड़ता है। भल निर्बन्धन हैं फिर भी डबल पार्ट तो है ना। आपका तो एक ही पार्ट है। प्रवृत्ति वालों को तीन पार्ट बजाना पड़ता – एक पढाई का, दूसरा सेवा का और साथ-साथ प्रवृत्ति को पालने का। आप तो सब बातों से छूट गई। अच्छा!

“सर्व सदा प्रसन्नता की विशेषता सम्पन्न श्रेष्ठ आत्माएं, सदा अपनी विशेषता को पहचान कार्य में लगाने वाली सेन्सीबुल और इसेन्सफुल आत्माओं को, सदा प्रसन्न रहने वाले, प्रसन्न करने की श्रेष्ठता वाली महान आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।“

आगरा – राजस्थान :-

सदा अपने को अकालतख्तनशीन श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? आत्मा अकाल है तो उसका तख्त भी अकालतख्त हो गया ना! इस तख्त पर बैठकर आत्मा कितना कार्य करती है। “तख्तनशीन आत्मा हूँ” – इस स्मृति से स्वराज्य की स्मृति स्वत: आती है। राजा भी जब तख्त पर बैठता है तो राजाई नशा, राजाई खुशी स्वत: होती है। तख्तनशीन माना स्वराज्य अधिकारी राजा हूँ – इस स्मृति से सभी कर्मेन्द्रियां स्वत: ही ऑर्डर पर चलेंगी। जो अकालतख्त-नशीन समझकर चलते हैं उनके लिए बाप का भी दिलतख्त है क्योंकि आत्मा समझने से बाप ही याद आता है। फिर न देह है, न देह के सम्बन्ध हैं, न पदार्थ हैं, एक बाप ही संसार है इसलिए अकालतख्त-नशीन बाप के दिलतख्त-नशीन भी बनते हैं। बाप की दिल में ऐसे बच्चे ही रहते हैं जो “एक बाप दूसरा न कोई” हैं। तो डबल तख्त हो गया।

जो सिकीलधे बच्चे होते हैं, प्यारे होते हैं उन्हें सदा गोदी में बिठायेंगे, ऊपर बिठायेंगे नीचे नहीं। तो बाप भी कहते हैं तख्त पर बैठो, नीचे नहीं आओ। जिसको तख्त मिलता है वह दूसरी जगह बैठेगा क्या? तो अकालतख्त वा दिलतख्त को भूल देह की धरनी में, मिट्टी में नहीं आओ। देह को मिट्टी कहते हो ना। मिट्टी, मिट्टी में मिल जायेगी – ऐसे कहते हैं ना! तो देह में आना अर्थात् मिट्टी में आना। जो रॉयल बच्चे होते हैं वह कभी मिट्टी में नहीं खेलते। परमात्म-बच्चे तो सबसे रॉयल हुए। तो तख्त पर बैठना अच्छा लगता है या थोड़ी-थोड़ी दिल होती है – मिट्टी में भी देख लें। कई बच्चों की आदत मिट्टी खाने की वा मिट्टी में खेलने की होती है। तो ऐसे तो नहीं है ना!

PLAY ing on dirty path in forest
Photo by Caleb Oquendo on Pexels.com

63 जन्म मिट्टी से खेला। अब बाप तख्तनशीन बना रहे हैं, तो मिट्टी से कैसे खेलेंगे, जो मिट्टी में खेलता है वह मैला होता है। तो आप भी कितने मैले हो गये। अब बाप ने स्वच्छ बना दिया। सदा इसी स्मृति से समर्थ बनो। शक्तिशाली कभी कमजोर नहीं होते। कमजोर होना अर्थात् माया की बीमारी आना। अभी तो सदा तन्दुरुस्त हो गये। आत्मा शक्तिशाली हो गई। शरीर का हिसाब-किताब अलग चीज़ है लेकिन मन शक्तिशाली हो गया ना। शरीर कमजोर है, चलता नहीं है, वह तो अंतिम है, वह तो होगा ही लेकिन आत्मा पावरफुल हो। शरीर के साथ आत्मा कमजोर न हो। तो सदा याद रखना कि डबल तख्तनशीन सो डबल ताजधारी बनने वाले हैं। अच्छा!

ALLWAYS HAPPY ,सदा खुश
ALLWAYS HAPPY ,सदा खुश

सभी सन्तुष्ट हो ना! सन्तुष्ट अर्थात् प्रसन्न। सदा प्रसन्न रहते हो या कभी-कभी रहते हो? कभी अप्रसन्न, कभी प्रसन्न – ऐसे तो नहीं, कभी किसी बात से अप्रसन्न तो नहीं होते हो? आज यह कर लिया, आज यह हो गया, कल वह हो गया – ऐसे पत्र तो नहीं लिखते हो? सदा प्रसन्नचित रहने वाले अपने रूहानी वायब्रेशन से औरों को भी प्रसन्न करते हैं। ऐसे नहीं – मैं तो प्रसन्न रहता ही हूँ। लेकिन प्रसन्नता की शक्ति फैलेगी जरूर। तो और किसको भी प्रसन्न कर सको – ऐसे हो या अपने तक ही प्रसन्न ठीक हो? दूसरों को भी करेंगे, फिर तो अभी कोई पत्र नहीं आयेगा। अगर कोई अप्रसन्नता का पत्र आये तो वापस उसको ही भेजें ना! यह टाइम और यह तारीख याद रखना।

हाँ, यह पत्र लिखो – ओ.के. हूँ और सब मेरे से भी ओ.के. हैं। यह दो लाइन लिखो, बस। मैं भी ओ.के. और दूसरे भी मेरे से ओ.के. हैं। इतना खर्च क्यों करते हो? यह तो दो लाइन कॉर्ड पर ही आ सकती हैं और बार-बार भी नहीं लिखो। कई तो रोज़ कॉर्ड भेज देते हैं, रोज़ नहीं भेजना। मास में दो बार, 15 दिन में एक ओ.के. का कॉर्ड लिखो, और कथाएं नहीं लिखना। अपनी प्रसन्नता से औरों को भी प्रसन्न बनाना। 

अच्छा!, “मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।“

वरदान:-     समाने और सामना करने की शक्ति द्वारा सेवा में सफलता प्राप्त करने वाले रूहानी सेवाधारी भव

रूहानी सेवाधारियों को सेवा के सिवाए कुछ भी सूक्षता नहीं, वे मन्सा-वाचा-कर्मणा सर्विस से एक सेकण्ड भी रेस्ट नहीं लेते इसलिए बेस्ट बन जाते हैं। वे सेवाओं में सफलता प्राप्त करने के लिए सदा यही स्लोगन याद रखते कि समाना और सामना करना- यही हमारा निशाना है। वे अपने पुराने संस्कारों को समाते हैं और सामना माया से करते न कि दैवी परिवार से। ऐसे बच्चे जो नॉलेजफुल के साथ-साथ पावरफुल भी हैं उन्हें ही कहा जाता है रूहानी सेवाधारी।

स्लोगन:-    छोटी बात को बड़ा नहीं करो, वातावरण को शक्तिशाली बनाओ।

*** ॐ शान्ति। ***

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आप से निवदेन है :- 

1. किर्प्या अपना इस वेबसाइट का अनुभव जरूर साँझा करे ताकि हम इसे और बेहतर बना सकें।.

2. अगर आप परमात्मा वचनो “मुरली” समझने में असमर्थ है तोह नजदीक के “ब्रह्माकुमारिस सेण्टर” से संपर्क करे और अपना “सात दिन का कोर्स” {एक घंटा प्रतिदिन} अवश्य पूरा करें।

3. “ब्रह्माकुमारि ईश्वरीय विश्वविद्यालय” : सेण्टर ढूंढे > “पास के BK सेण्टर  “वेबसाइट” ।

धन्यवाद – “ॐ शान्ति”।

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