22-1-2023 – ”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन मुरली. रिवाइज: 25-11-1993: “सहज सिद्धि प्राप्त करने के लिए ज्ञान स्वरूप प्रयोगीआत्मा बनो”
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शिव भगवानुवाच: “सहज सिद्धि प्राप्त करने के लिए ज्ञान स्वरूप प्रयोगी आत्मा बनो”
गीत:- “हम खुश नसीब कितने…”
“ओम् शान्ति”
शिव भगवानुवाच : –आज ज्ञान दाता वरदाता अपने ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चा ज्ञान स्वरूप और योगयुक्त कहाँ तक बना है? ज्ञान सुनने और सुनाने के निमित्त बने हैं वा ज्ञान स्वरूप बने हैं? समय प्रमाण योग लगाने वाले बने हैं वा सदा योगी जीवन अर्थात् हर कर्म में योगयुक्त, युक्तियुक्त, स्वत: वा सदा के योगी बने हैं? किसी भी ब्राह्मण आत्मा से कोई भी पूछेंगे कि ज्ञानी और योगी हैं तो क्या कहेंगे? सभी ज्ञानी और योगी हैं ना?
ज्ञान स्वरूप बनना अर्थात् हर संकल्प, बोल और कर्म समर्थ होगा। व्यर्थ समाप्त होगा क्योंकि जहाँ समर्थ है वहाँ व्यर्थ हो नहीं सकता। जैसे प्रकाश और अन्धियारा साथ–साथ नहीं होता। तो ‘ज्ञान‘ प्रकाश है, ‘व्यर्थ‘ अन्धकार है। वर्तमान समय व्यर्थ को समाप्त करने का अटेन्शन रखना है। सबसे मुख्य बात संकल्प रूपी बीज को समर्थ बनाना है। अगर संकल्प रूपी बीज समर्थ है तो वाणी, कर्म, सम्बन्ध सहज ही समर्थ हो ही जाता है। तो ज्ञान स्वरूप अर्थात् हर समय, हर संकल्प, हर सेकेण्ड समर्थ।
योगी तू आत्मा सभी बने हो लेकिन हर संकल्प स्वत: योगयुक्त, युक्तियुक्त हो, इसमें नम्बरवार हैं। क्यों नम्बर बने? जब विधाता भी एक है, विधि भी एक है फिर नम्बर क्यों? बापदादा ने देखा योगी तो बने हैं लेकिन प्रयोगी कम बनते हैं। योग करने और कराने दोनों में सभी होशियार हैं। ऐसा कोई है जो कहे कि योग कराना नहीं आता? जैसे योग करने–कराने में योग्य हो, ऐसे ही प्रयोग करने में योग्य बनना और बनाना – इसको कहा जाता है योगी जीवन अर्थात् योगयुक्त जीवन।
अभी प्रयोगी जीवन की आवश्यकता है। जो योग की परिभाषा जानते हो, वर्णन करते हो वो सभी विशेषतायें प्रयोग में आती हैं? सबसे पहले अपने आपमें यह चेक करो कि अपने संस्कार परिवर्तन में कहाँ तक प्रयोगी बने हो? क्योंकि आप सबके श्रेष्ठ संस्कार ही श्रेष्ठ संसार के रचना की नींव हैं। अगर नींव मज़बूत है तो अन्य सभी बातें स्वत: मज़बूत हुई ही पड़ी हैं। तो यह देखो कि संस्कार समय पर कहाँ धोखा तो नहीं देते हैं? श्रेष्ठ संस्कार को परिवर्तन करने वाले कैसे भी व्यक्ति हो, वस्तु हो, परिस्थिति हो, योग के प्रयोग करने वाली आत्मा को श्रेष्ठ से साधारणता में हिला नहीं सकते।
ऐसे नहीं कि बात ही ऐसी थी, व्यक्ति ही ऐसा था, वायुमण्डल ऐसा था इसलिये श्रेष्ठ संस्कार को परिवर्तन कर साधारण वा व्यर्थ बना दिया, तो क्या इसको प्रयोगी आत्मा कहेंगे? अगर समय पर योग की शक्तियों का प्रयोग नहीं हुआ तो इसको क्या कहा जायेगा? तो पहले इस फाउण्डेशन को देखो कि कहाँ तक समय पर प्रयोगी बने हैं? अगर स्व के संस्कार परिवर्तक नहीं बने हैं तो नये संसार परिवर्तक कैसे बनेंगे?
प्रयोगी आत्मा की पहली निशानी है संस्कार के ऊपर सदा प्रयोग में विजयी। दूसरी निशानी प्रकृति द्वारा आने वाली परिस्थितियों पर योग के प्रयोग द्वारा विजयी। समय प्रति समय प्रकृति की हलचल भी योगी आत्मा को अपने तरफ आकर्षित करती है। ऐसे समय पर योग की विधि प्रयोग में आती है? कभी योगी पुरुष को वा पुरुषोत्तम आत्मा को प्रकृति प्रभावित तो नहीं करती? क्योंकि ब्राह्मण आत्मायें पुरुषोत्तम आत्मायें हो। प्रकृति पुरुषोत्तम आत्माओं की दासी है। मालिक, दासी के प्रभाव में आ जाये इसको क्या कहेंगे?
आजकल पुरुषोत्तम आत्माओं को प्रकृति साधनों और सैलवेशन के रूप में प्रभावित करती है। साधन वा सैलवेशन के आधार पर योगी जीवन है। साधन वा सैलवेशन कम तो योगयुक्त भी कम – इसको कहा जाता है प्रभावित होना। योगी वा प्रयोगी आत्मा की साधना के आगे साधन स्वत: ही स्वयं आते हैं। साधन साधना का आधार नहीं हो लेकिन साधना साधनों को स्वत: आधार बनायेगी, इसको कहा जाता है प्रयोगी आत्मा। तो चेक करो – संस्कार परिवर्तन विजयी और प्रकृति के प्रभाव के विजयी कहाँ तक बने हैं? तीसरी निशानी है – विकारों पर विजयी। योगी वा प्रयोगी आत्मा के आगे ये पांच विकार, जो दूसरों के लिये जहरीले सांप है लेकिन आप योगी-प्रयोगी आत्माओं के लिये ये सांप गले की माला बन जाते हैं।
आप ब्राह्मणों के और ब्रह्मा बाप के अशरीरी तपस्वी शंकर स्वरूप का यादगार अभी भी भक्त लोग पूजते और गाते रहते हैं। दूसरा याद–गार – ये सांप आपके अधीन ऐसे बन जाते जो आपके खुशी में नाचने की स्टेज बन जाते हैं। जब विजयी बन जाते हैं तो क्या अनुभव करते हैं? क्या स्थिति होती है? खुशी में नाचते रहते हैं ना। तो यह स्थिति स्टेज के रूप में दिखाई है। स्थिति को भी स्टेज कहा जाता है। ऐसे विकारों पर विजय हो – इसको कहा जाता है प्रयोगी। तो यह चेक करो कहाँ तक प्रयोगी बने हैं?
अगर योग का समय पर प्रयोग नहीं, योग की विधि से समय पर सिद्धि नहीं तो यथार्थ विधि कहेंगे? समय अपनी तीव्र गति समय प्रति समय दिखा रहा है। अनेकता, अधर्म, तमोप्रधानता हर क्षेत्र में तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय पर आपके योग के विधि की वृद्धि वा विधि के सिद्धि में वृद्धि तीव्र गति से होना आवश्यक है। नम्बर आगे बढ़ने का आधार है प्रयोगी बनने की सहज विधि।
तो बापदादा ने क्या देखा समय पर प्रयोग करने में तीव्र गति के बजाय साधारण गति है। अभी इसको बढ़ाओ। तो क्या होगा सिद्धि स्वरूप अनुभव करते जायेंगे। आपके जड़ चित्रों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का अनुभव करते रहते हैं। चैतन्य में सिद्धि स्वरूप बने हो तब यह यादगार चला आ रहा है। रिद्धि–सिद्धि वाले नहीं, विधि से सिद्धि। तो समझा क्या करना है? सब कुछ लेकिन समय पर प्रयोग करना और प्रयोग सफल होना इसको कहा जाता है ज्ञान स्वरूप आत्मा। ऐसे ज्ञान स्वरूप आत्मायें अति समीप और अति प्रिय हैं। अच्छा!
“सदा योग की विधि द्वारा श्रेष्ठ सिद्धि को अनुभव करने वाले, सदा साधारण संस्कार को श्रेष्ठ संस्कार में परिवर्तन करने वाले, संस्कार परिवर्तक आत्माओं को, सदा प्रकृति जीत, विकारों पर जीत प्राप्त करने वाले विजयी आत्माओं को, सदा प्रयोग के गति को तीव्र अनुभव करने वाले ज्ञान स्वरूप, योगयुक्त योगी आत्माओं को बापदादा का याद–प्यार और नमस्ते।“
(24 नवम्बर को दो कुमारियों के समर्पण समारोह के बाद रात्रि 10 बजे दादी आलराउन्डर ने अपना पुराना चोला छोड़ बापदादा की गोद ली, 25 तारीख दोपहर में उनका अन्तिम संस्कार किया गया, सायंकाल मुरली के पश्चात दादियों से मुलाकात करते समय बापदादा ने जो महावाक्य उच्चारे वह इस प्रकार हैं):
खेल में भिन्न–भिन्न खेल देखते रहते हो। साक्षी हो खेल देखने में मज़ा आता है ना। चाहे कोई उत्सव हो, चाहे कोई शरीर छोड़े दोनों ही क्या लगता है? खेल में खेल लगता है। और लगता भी ऐसे ही है ना जैसे खेल होता है और समय प्रमाण समाप्त हो जाता है। ऐसे ही जो हुआ सहज समाप्त हुआ तो खेल ही लगता है। हर आत्मा का अपना–अपना पार्ट है। सर्व आत्माओं की शुभ भावना, अनेक आत्माओं की शुभ भावना प्राप्त होऩा यह भी हर आत्मा के भाग्य की सिद्धि है।
तो जो भी हुआ, क्या देखा? खेल देखा या मृत्यु देखा? एक तरफ वहीं अलौकिक स्वयंवर देखा और दूसरे तरफ चोला बदलने का खेल देखा। लेकिन दोनों क्या लगे? खेल में खेल। फ़र्क पड़ता है क्या? स्थिति में फ़र्क पड़ता है? अलौकिक स्वयंवर देखने में और चोला बदलते हुए देखने में फ़र्क पड़ा? थोड़ी लहर बदली हुई कि नहीं? साक्षी होकर खेल देखो तो वो अपने विधि का और वो अपने विधि का। सहज नष्टोमोहा होऩा यह बहुतकाल के योग के विधि की सिद्धि है।
तो नष्टोमोहा, सहज मृत्यु का खेल देखा। इस खेल का क्या रहस्य देखा? देह के स्मृति से भी उपराम। चाहे व्याधि द्वारा, चाहे विधि द्वारा और कोई भी आकर्षण अन्त समय आकर्षित नहीं करे। इसको कहा जाता है सहज चोला बदली करना। तो क्या करना है? नष्टो–मोहा, सेन्टर भी याद नहीं आये। (टीचर्स को देखते हुए) ऐसे नहीं कोई जिज्ञासू याद आ जाये, कोई सेन्टर की वस्तु याद आ जाये, कुछ किनारे किया हुआ याद आ जाये…। सबसे न्यारे और बाप के प्यारे। पहले से ही किनारे छुटे हुए हों। कोई किनारे को सहारा नहीं बनाना है। सिवाए मंज़िल के और कोई लगाव नहीं हो। अच्छा!
निर्मलशान्ता दादी से मुलाकात:-
संगठन अच्छा लगता है? संगठन की विशेष शोभा हो। सबकी नज़र कितने प्यार से आप सबके तरफ जाती है! जब तक जितनी सेवा है उतनी सेवा शरीर द्वारा होनी ही है। कैसे भी करके शरीर चलता ही रहेगा। शरीर को चलाने का ढंग आ गया है ना। अच्छा चल रहा है क्योंकि बाप की और सबकी दुआयें हैं। खुश रहना है और खुशी बांटनी है और क्या काम है। सब देख–देख कितने खुश होते हैं तो खुशी बांट रहे हैं ना। खा भी रहे हैं, बांट भी रहे हैं। आप सब एक–एक दर्शनीय मूर्त हो। सबकी नज़र निमित्त आत्माओं तरफ जाती है तो दर्शनीय मूर्त हो गये ना। अच्छा!
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात
1) ब्राह्मण जीवन का आधार – याद और सेवा:-
ड्रामा अनुसार ब्राह्मण जीवन में सभी को सेवा का चांस मिला हुआ है ना क्योंकि ब्राह्मण जीवन का आधार ही है याद और सेवा। अगर याद और सेवा कमजोर है तो जैसे शरीर का आधार कमजोर हो जाता है तो शरीर दवाइयों के धक्के से चलता है ना। तो ब्राह्मण जीवन में अगर याद और सेवा का आधार मज़बूत नहीं, कमजोर है, तो वह ब्राह्मण जीवन भी कभी तेज़ चलेगा, कभी ढीला चलेगा, धक्के से चलेगा। कोई सहयोग मिले, कोई साथ मिले, कोई सरकमस्टांस मिले तो चलेंगे, नहीं तो ढीले हो जायेंगे इसलिए याद और सेवा का विशेष आधार सदा शक्तिशाली चाहिए। दोनों ही शक्तिशाली हों। सेवा बहुत है, याद कमजोर है या याद बहुत अच्छी है, सेवा कमजोर है तो भी तीव्रगति नहीं हो सकती। याद और सेवा दोनों में तीव्रगति चाहिए। शक्तिशाली चाहिए।
तो दोनों ही शक्तिशाली हैं या फ़र्क पड़ जाता है? कभी सेवा ज्यादा हो जाती, कभी याद ज्यादा हो जाती? दोनों साथ–साथ हों। याद और नि:स्वार्थ सेवा। स्वार्थ की सेवा नहीं, नि:स्वार्थ सेवा है तो माया जीत बनना बहुत सहज है। हर कर्म में, कर्म की समाप्ति के पहले सदा विजय दिखाई देगी, इतना अटल निश्चय का अनुभव होगा कि विजय तो हुई पड़ी है। अगर ब्राह्मण आत्माओं की विजय नहीं होगी तो किसकी होगी? क्षत्रियों की होगी क्या? ब्राह्मणों की विजय है ना।
क्वेश्चन मार्क नहीं होगा। कर तो रहे हैं, चल तो रहे हैं, देख लेंगे, हो जायेगा, होना तो चाहिए… तो ये शब्द नहीं आयेंगे। पता नहीं क्या होगा, होगा या नहीं होगा… यह निश्चय के बोल हैं? निश्चयबुद्धि विजयी यह गायन है ना? तो जब प्रैक्टिकल हुआ है तब तो गायन है। निश्चयबुद्धि की निशानी है विजय निश्चित। जैसे किसी भी प्रकार की किसको शक्ति होती है चाहे धन की हो, बुद्धि की हो, सम्बन्ध–सम्पर्क की हो तो उसको निश्चय रहता है यह क्या बड़ी बात है, यह तो कोई बात ही नहीं है। आपके पास तो सब शक्तियां हैं। धन की शक्ति है कि धन की शक्ति करोड़पतियों के पास है?
सबसे बड़ा धन है अविनाशी धन, जो सदा साथ है। तो धन की शक्ति भी है, बुद्धि की शक्ति भी है, पोज़ीशन की शक्ति भी है। जो भी शक्तियां गाई हुई हैं सब शक्तियां आप में हैं। हैं या कभी प्राय: लोप हो जाती हैं? इन्हें इमर्ज रूप में अनुभव करो। ऐसे नहीं हाँ, हूँ तो सर्वशक्तिमान् का बच्चा लेकिन अनुभव नहीं होता। तो सभी भरपूर हो कि थोड़ा–थोड़ा खाली हो? समय पर विधि द्वारा सिद्धि प्राप्त हो। ऐसे नहीं समय पर हो नहीं और वैसे नशा हो कि बहुत शक्तियां हैं। कभी अपनी शक्तियों को भूलना नहीं, यूज़ करते जाओ। अगर स्व प्रति कार्य में लगाना आता है तो दूसरे के कार्य में भी लगा सकते हैं।
पाण्डवों में शक्ति आ गई या कभी क्रोध आता है? थोड़ा–थोड़ा क्रोध आता है? कोई क्रोध करे तो क्रोध आता है, कोई इन्सल्ट करे तो क्रोध आता है? यह तो ऐसे ही हुआ जैसे दुश्मन आता है तो हार होती है। माताओं को थोड़ा–थोड़ा मोह आता है? पाण्डवों को अपने हर कल्प के विजयपन की सदा खुशी इमर्ज होनी चाहिये। कभी भी कोई पाण्डवों को याद करेंगे तो पाण्डव शब्द से विजय सामने आयेगी ना। पाण्डव अर्थात् विजयी। पाण्डवों की कहानी का रहस्य ही क्या है? विजय है ना। तो हर कल्प के विजयी। इमर्ज रूप में नशा रहे। मर्ज नहीं। अच्छा!
2) सर्व द्वारा मान प्राप्त करने के लिए निर्मान बनो:-
सभी अपने को सदा कोटों में कोई और कोई में भी कोई श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? कि कोटों में कोई जो गाया हुआ है वो और कोई है? या आप ही हो? तो कितना एक-एक आत्मा का महत्व है अर्थात् हर आत्मा महान् है। तो जो जितना महान् होता है, महानता की निशानी जितना महान् उतना निर्मान क्योंकि सदा भरपूर आत्मा है। जैसे वृक्ष के लिये कहते हैं ना जितना भरपूर होगा उतना झुका हुआ होगा और निर्मानता ही सेवा करती है। जैसे वृक्ष का झुकना सेवा करता है, अगर झुका हुआ नहीं होगा तो सेवा नहीं करेगा। तो एक तरफ महानता है और दूसरे तरफ निर्मानता है। और जो निर्मान रहता है वह सर्व द्वारा मान पाता है। स्वयं निर्मान बनेंगे तो दूसरे मान देंगे। जो अभिमान में रहता है उसको कोई मान नहीं देते। उससे दूर भागेंगे।
तो महान् और निर्मान है या नहीं है उसकी निशानी है कि निर्मान सबको सुख देगा। जहाँ भी जायेगा, जो भी करेगा वह सुखदायी होगा। इससे चेक करो कि कितने महान् हैं? जो भी सम्बन्ध–सम्पर्क में आये सुख की अनुभूति करे। ऐसे है या कभी दु:ख भी मिल जाता है? निर्मानता कम तो सुख भी सदा नहीं दे सकेंगे। तो सदा सुख देते, सुख लेते या कभी दु:ख देते, दु:ख लेते? चलो देते नहीं लेकिन ले भी लेते हो? थोड़ा फ़ील होता है तो ले लिया ना। अगर कोई भी बात किसी की फ़ील हो जाती है तो इसको कहेंगे दु:ख लेना। लेकिन कोई दे और आप नहीं लो, यह तो आपके ऊपर है ना। जिसके पास होगा ही दु:ख वो क्या देगा? दु:ख ही देगा ना।
लेकिन अपना काम है सुख लेना और सुख देना। ऐसे नहीं कि कोई दु:ख दे रहा है तो कहेंगे मैं क्या करूँ? मैंने नहीं दिया लेकिन उसने दिया। अपने को चेक करना है क्या लेना है, क्या नहीं लेना है। लेने में भी होशियारी चाहिये ना इसलिये ब्राह्मण आत्माओं का गायन है सुख के सागर के बच्चे, सुख स्वरूप सुखदेवा हैं। तो सुख स्वरूप सुखदेवा आत्मायें हो। दु:ख की दुनिया छोड़ दी, किनारा कर लिया या अभी तक एक पांव दु:खधाम में है, एक पांव संगम पर है? ऐसे तो नहीं कि थोड़ा–थोड़ा वहाँ बुद्धि रह गई है? पांव नहीं है लेकिन थोड़ी अंगुली रह गई है? जब दु:खधाम को छोड़ चले तो न दु:ख लेना है न दु:ख देना है। अच्छा!
वरदान:- “उड़ती कला द्वारा बाप समान आलराउन्ड पार्ट बजाने वाले चक्रवर्ती भव!”
जैसे बाप आलराउन्ड पार्टधारी है, सखा भी बन सकते तो बाप भी बन सकते। ऐसे उड़ती कला वाले जिस समय जिस सेवा की आवश्यकता होगी उसमें सम्पन्न पार्ट बजा सकेंगे। इसको ही कहा जाता है आलराउन्ड उड़ता पंछी। वे ऐसे निर्बन्धन होंगे जो जहाँ भी सेवा होगी वहाँ पहुंच जायेंगे। हर प्रकार की सेवा में सफलतामूर्त बनेंगे। उन्हें ही कहा जाता है चक्रवर्ती, आलराउन्ड पार्टधारी।
स्लोगन:- “एक दो की विशेषताओं को स्मृति में रख फेथफुल बनो तो संगठन एकमत हो जायेगा। “ – ओम् शान्ति।
मधुबन मुरली:- सुनने के लिए लिंक को सेलेक्ट करे > “Hindi Murli”
गीत:- “तू ही तो शक्तिवन है…” , अन्य गीत सुनने के लिए सेलेक्ट करे > “PARMATMA LOVE SONGS”.
अच्छा – ओम् शान्ति।
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नोट: यदि आप “मुरली = भगवान के बोल“ को समझने में सक्षम नहीं हैं, तो कृपया अपने शहर या देश में अपने निकटतम ब्रह्मकुमारी राजयोग केंद्र पर जाएँ और परिचयात्मक “07 दिनों की कक्षा का फाउंडेशन कोर्स” (प्रतिदिन 01 घंटे के लिए आयोजित) पूरा करें।
खोज करो: “ब्रह्मा कुमारिस ईश्वरीय विश्वविद्यालय राजयोग सेंटर” मेरे आस पास.
“आज की मुरली से आपने क्या सीखा?” कृपया अपना उत्तर साझा करें । [नीचे प्रतिक्रिया लिंक व *LIKE* का चयन करें]