25-12-2022 “अव्यक्त-बापदादा” मधुबन प्रात: मुरली : “हाइएस्टऔर होलीएस्ट आत्मा की निशानियां”
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शिव भगवानुवाच: “हाइएस्ट और होलीएस्ट आत्मा की निशानियां”
गीत:- “हम तो सदा महफूज हुए हैं…”
“ओम् शान्ति”
शिव भगवानुवाच :- आज बापदादा अपने सर्व हाइएस्ट और होलीएस्ट बच्चों को देख रहे हैं। सभी बच्चे इस बेहद के ड्रामा के अन्दर वा सृष्टि-चक्र के अन्दर सबसे हाइएस्ट भी हो और सबसे ज्यादा होलीएस्ट भी हो। आदि से अब संगम समय तक देखो कि आप आत्माओं से कोई हाइएस्ट श्रेष्ठ बना है? जितना आप श्रेष्ठ स्थिति को, श्रेष्ठ पद को प्राप्त करते हो। इतना और कोई भी आत्मायें, चाहे धर्म पितायें हैं, चाहे महान् आत्मायें हैं कोई भी इतना श्रेष्ठ नहीं रहे क्योंकि आप ऊंचे ते ऊंचे भगवान् द्वारा डायरेक्ट पालना, पढ़ाई और श्रेष्ठ जीवन की श्रीमत लेने वाली आत्मायें हो।
जानते हो ना अपने को? अपने अनादि काल को देखो, अनादि काल में भी परमधाम में बाप के समीप रहने वाली हो। अपना स्थान याद है ना? तो अनादि काल में भी हाइएस्ट हो, समीप, साथ हो और आदि–काल में भी सृष्टि–चक्र के सतयुग काल में देव-पद प्राप्त करने वाली आत्मायें हो।
देव आत्माओं का समय ‘आदिकाल‘ भी सर्वश्रेष्ठ है और साकार मनुष्य जीवन में सर्व प्राप्ति सम्पन्न, श्रेष्ठ हो। सृष्टि–चक्र के अन्दर ये देव पद अर्थात् देवता जीवन ही ऐसी जीवन है जहाँ तन, मन, धन, जन चारों ही प्रकार की सर्व प्राप्तियां प्राप्त हैं।
अपनी दैवी जीवन याद है? कि भूल गये हो? अनादि काल भी याद आ गया, आदि काल भी याद आ गया! अच्छी तरह से याद करो। तो दोनों समय में हाइएस्ट हो ना
उसके बाद मध्य काल में आओ। तो द्वापर में आप आत्माओं के जड़ चित्र बनते हैं अर्थात् पूज्य आत्मायें बनते हैं। पूज्य में भी देखो, सबसे विधि–पूर्वक पूजा देव आत्माओं की होती है। आप सबके मन्दिर बने हैं। डबल विदेशियों के मन्दिर बने हुए हैं? कि सिर्फ भारतवासियों के बनते हैं? बने हुए हैं ना! जैसे देव आत्माओं की पूजा होती है ऐसे और किसी आत्माओं की पूजा नहीं होती। कोई महात्मा वगैरह को मन्दिर में बिठा भी देते हैं, लेकिन ऐसे भावना और विधिपूर्वक हर कर्म की पूजा हो ऐसी पूजा नहीं होती।
तो मध्य काल में भी पूज्य रूप में श्रेष्ठ हो, हाइएस्ट हो। अब अन्त में आओ, अब संगमयुग पर भी ऊंचे ते ऊंचे ब्राह्मण आत्मायें ‘ब्राह्मण सो फरिश्ता’ आत्मायें बनते हो। तो अनादि, आदि, मध्य और अन्त हाइएस्ट हो गये ना। है इतना नशा? रूहानी नशा है ना ! अभिमान नहीं लेकिन स्वमान है, स्वमान का नशा है। स्व अर्थात् आत्मा का, श्रेष्ठ आत्मा का रूहानी नशा है।
तो सारे चक्र में हाइएस्ट भी हो और साथ–साथ होलीएस्ट भी हो। चाहे और आत्मायें भी होली अर्थात् पवित्र बनती हैं लेकिन आपकी वर्तमान समय की पवित्रता और फिर देवता जीवन की पवित्रता सभी से श्रेष्ठ और न्यारी है। इस समय भी सम्पूर्ण पवित्र अर्थात् होली बनते हो।
सम्पूर्ण पवित्रता की परिभाषा बहुत श्रेष्ठ है और सहज भी है। सम्पूर्ण पवित्रता का अर्थ ही है स्वप्नमात्र भी अपवित्रता मन और बुद्धि को टच नहीं करे। इसी को ही कहा जाता है सच्चे वैष्णव। चाहे अभी नम्बरवार पुरुषार्थी हो लेकिन पुरुषार्थ का लक्ष्य सम्पूर्ण पवित्रता का ही है। और सहज पवित्रता को धारण करने वाली आत्मायें हो। सहज क्यों है? क्योंकि हिम्मत बच्चों की और मदद सर्वशक्तिवान बाप की, इसलिए मुश्किल वा असम्भव भी सम्भव हो गया है और नम्बरवार हो रहा है।
तो होली अर्थात् पवित्रता की भी श्रेष्ठ स्थिति का अनुभव आप ब्राह्मण आत्माओं को है। सहज लगती है या मुश्किल लगती है? सम्पूर्ण पवित्रता मुश्किल है या सहज है? कभी मुश्किल, कभी सहज? सम्पूर्ण बनना ही है ये लक्ष्य है ना। लक्ष्य तो हाइएस्ट है ना! कि लक्ष्य ही ढीला है कि कोई बात नहीं, सब चलता है? नहीं। यह तो नहीं सोचते हो थोड़ा–बहुत तो होता ही है? ये तो नहीं सोचते “थोड़ा तो चलता ही है, चला लो, किसको क्या पता पड़ता है, कोई मन्सा तो देखता ही नहीं है, कर्म में तो आते ही नहीं हैं?”
लेकिन मन्सा के वायब्रेशन्स भी छिप नहीं सकते। चलाने वाले को बापदादा अच्छी तरह से जानते हैं। ऐसे आउट नहीं करते, नहीं तो नाम भी आउट कर सकते हैं। लेकिन अभी नहीं करते। चलाने वाले स्वयं ही चलते–चलते, चलाते–चलाते त्रेता तक पहुँच जायेंगे। लेकिन लक्ष्य सभी का सम्पूर्ण पवित्रता का ही है।
सारे चक्र में देखो सिर्फ देव आत्मायें हैं जिनका शरीर भी पवित्र है और आत्मा भी पवित्र है। और जो भी आये हैं आत्मा पवित्र बन भी जाये लेकिन शरीर पवित्र नहीं होगा। आप आत्मायें ब्राह्मण जीवन में ऐसे पवित्र बनते हो जो शरीर भी, प्रकृति भी पवित्र बना देते हो इसलिए शरीर भी पवित्र है तो आत्मा भी पवित्र है।
लेकिन वो कौनसी आत्मायें हैं जो ‘शरीर‘ और ‘आत्मा‘ दोनों से पवित्र बनती हैं? उन्हों को देखा है? कहाँ हैं वो आत्मायें? आप ही हो वो आत्मायें! आप सभी हो या थोड़े हैं? पक्का है ना कि हम ही थे, हम ही बन रहे हैं। तो हाइएस्ट भी हो और होलीएस्ट भी हो। दोनों ही हो ना! कैसे बने? बहुत अलौकिक रूहानी होली मनाने से होली बने। कौनसी होली खेली है जिससे होलीएस्ट भी बने हो और हाइएस्ट भी बने हो?
सबसे अच्छे ते अच्छा श्रेष्ठ रंग कौनसा है? सबसे अविनाशी रंग है बाप के संग का रंग। जैसा संग होता है ना, वैसा रंग लगता है। आपको किसका रंग लगा? बाप का ना! तो बाप के संग का रंग जितना पक्का लगता है उतना ही होली बन जाते हो, सम्पूर्ण पवित्र बन जाते हो। संग का रंग तो सहज है ना! संग में रहो, रंग आपेही लग जायेगा, मेहनत करने की भी आवश्यकता नहीं। संग में रहना आता है? कि डबल विदेशियों को अकेला रहना, अकेलापन महसूस करना जल्दी आता है? कभी-कभी कम्पलेन आती है ना कि मैं अपने को एलोन (अकेला) महसूस करती हूँ।
क्यों अकेले रहते हो? क्यों अकेलापन महसूस करते हो? आदत है, इसलिए? ब्राह्मण आत्माएं एक सेकेण्ड भी अकेले नहीं हो सकतीं। हो सकती हैं? (नहीं) होना नहीं है लेकिन हो जाते हो! बापदादा ने स्वयं अपना साथी बनाया, फिर अकेले कैसे हो सकते हो! कई बच्चे कहते हैं कि बाप को ‘कम्पेनियन‘ (साथी) तो बनाया है लेकिन सदा कम्पनी (साथ) नहीं रहती। क्यों? कम्पेनियन बनाया है, इसमें तो ठीक हैं। सभी से पूछेंगे आपका कम्पेनियन कौन है? तो बाबा ही कहेंगे ना।
बापदादा ने देखा कि जब कम्पेनियन बनाने से भी काम नहीं चलता, कभी–कभी फिर भी अकेले हो जाते हो। अभी और क्या युक्ति अपनायें? कम्पे–नियन बनाया है लेकिन कम्बाइण्ड नहीं बने हो। कम्बाइण्ड–स्वरूप कभी अलग नहीं होता। कम्पेनियन से कभी–कभी फ्रैण्डली क्वरल (झगड़ा) भी हो जाता है तो अलग हो जाते हो। कभी-कभी कोई ऐसी बात हो जाती है ना, तो बाप से अकेले बन जाते हो।
तो कम्पेनियन तो बनाया है लेकिन कम्पेनियन को कम्बाइण्ड रूप में अनुभव करो। अलग हो ही नहीं सकते, किसकी ताकत नहीं जो मुझ कम्बाइण्ड रूप को अलग कर सके, ऐसा अनुभव बार–बार स्मृति में लाते–लाते स्मृति–स्वरूप बन जाओ। बार-बार चेक करो कि कम्बाइण्ड हूँ, किनारा तो नहीं कर लिया? जितना कम्बाइण्ड–रूप का अनुभव बढ़ाते जायेंगे उतना ब्राह्मण जीवन बहुत प्यारी, मनोरंजक जीवन अनुभव होगी।
तो ऐसी होली मनाने आये हो ना। कि सिर्फ रंग की होली मनाकर कहेंगे कि होली हो गई? सदैव याद रखो संग के रंग की होली से होलीएस्ट और हाइएस्ट सहज बनना है। मुश्किल नहीं, सहज। परमात्म–संग कभी मुश्किल का अनुभव नहीं कराता। बापदादा को भी बच्चों का मेहनत या मुश्किल अनुभव करना अच्छा नहीं लगता। मास्टर सर्व–शक्तिवान वा सर्वशक्तिवान के कम्बाइण्ड–रूप और फिर मुश्किल कैसे हो सकती! जरूर कोई अलबेलापन वा आलस्य वा पुरानी पास्ट लाइफ के संस्कार इमर्ज होते हैं तब मुश्किल अनुभव होता है।
जब मरजीवा बन गये तो पुराने संस्कार की भी मृत्यु हो गयी, पुराने संस्कार इमर्ज हो नहीं सकते। बिल्कुल भूल जाओ ये पुराने जन्म के हैं, ब्राह्मण जन्म के नहीं हैं। जब पुराना जन्म समाप्त हुआ, नया जन्म धारण किया तो नया जन्म, नये संस्कार।
अगर माया पुराने संस्कार इमर्ज कराती भी है तो सोचो अगर कोई दूसरे की चीज आपको आकर के देवे तो आप क्या करेंगे? रख देंगे? स्वीकार करेंगे? सोचेंगे ना कि ये हमारी चीज नहीं है, ये दूसरे की चीज मैं कैसे ले सकता हूँ? अगर माया पुराने जन्म के संस्कार इमर्ज करने के रूप में आती भी है तो आपकी चीज तो आई नहीं। सोचो ये मेरी चीज नहीं है, ये पराई है। पराई चीज को संकल्प में भी अपना नहीं मान सकते हो। मान सकते हैं? सोचो पराई चीज़ जरूर धोखा देगी, दु:ख देगी। सोचकर के उसी सेकेण्ड पराई चीज को छोड़ दो, फेंक दो अर्थात् बुद्धि से निकाल दो। पराई चीज को अपनी बुद्धि में रख नहीं लो। नहीं तो परेशान करती रहेंगी।
सदा ये सोचो कि ब्राह्मण जीवन में बाप ने क्या–क्या दिया, ब्राह्मण जीवन का अर्थात् मेरा निजी स्वभाव, संस्कार, वृति, दृष्टि, स्मृति क्या है? ये निजी है, वो पराई है। पराया माल अच्छा लगता है कि अपना माल अच्छा लगता है? ये रावण का माल है और ये बाप का माल है कौनसा अच्छा लगता है? कभी भी गलती से भी संकल्प में भी नहीं लाओ “क्या करें, मेरा स्वभाव ऐसा है, मेरा संस्कार ऐसा है? क्या करें, संस्कार को मिटाना बहुत मुश्किल है।”
आपका है ही नहीं। मेरा क्यों कहते हो? मेरा है ही नहीं। रावण की चीज को मेरा कहते हो! मेरा बनाते हो ना, तब ही वो संस्कार भी समझते हैं कि इसने अपना तो बना लिया, तो अब अच्छी तरह से खातिरी करो। निजी संस्कार, निजी स्वभाव इमर्ज करो तो वह स्वत: ही मर्ज हो जायेंगे। समझा, क्या करना है?
तो ऐसी होली मनाने आये हो ना। वो एक दिन कहेंगे होली है; दूसरे दिन कहेंगे होली हो गई। और आप क्या कहेंगे? आप कहेंगे हम सदा ही संग के रंग की होली मना रहे हैं और होली बन गये। होली मनाते–मनाते होली बन गये। होली मना ली या मनानी है? जबसे ब्राह्मण बने हो तब से होली मना रहे हो क्योंकि संगमयुग का समय ही सदा उत्सव का समय है। दुनिया वाले तो एक्स्ट्रा खर्च करके मौज मनाते हैं। लेकिन आप सदा ही हर सेकेण्ड मौज मनाने वाले हो, हर सेकेण्ड नाचते-गाते रहते हो।
सदा खुशी में नाचते हो या जब कल्चरल प्रोग्राम होता है तभी नाचते हो? सदा नाचते रहते हो ना। सदा बाप की महिमा और अपनी प्राप्तियों के गीत गाते रहो। सबको गाना आता है ना। सभी गा सकते हो, सभी नाच सकते हो। सदा नाचना–गाना मुश्किल है क्या? सहज है और सदा सहज अनुभव करते सम्पन्न बनना ही है। कभी भी ये नहीं सोचो पता नहीं, हम सम्पन्न बनेंगे या नहीं बनेंगे। ये कमजोर संकल्प कभी आने नहीं दो। सदा यही सोचो कि अनेक बार मैं ही बनी हूँ और मुझे ही बनना ही है। अच्छा!
“चारो ओर के सदा परमात्म–संग के रंग की होली मनाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें, सृष्टि–चक्र के अन्दर सदा हाइएस्ट पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें, सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ होलीएस्ट आत्मायें, सदा कम्बाइण्ड रहने वाली पद्मापद्म भाग्यवान आत्मायें, सदा सर्व की मुश्किल को भी सहज बनाने वाली ब्राह्मण आत्मायें, सदा नये जन्म के नये स्वभाव–संस्कार, नये उमंग–उत्साह में रहने वाली उड़ती कला की अनुभवी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।“
दादी जानकी जी के प्रति बापदादा के वरदानी महावाक्य : –
अच्छा चल रहा है ना। रथ को चलाने का तरीका आ गया है। दादियों को ठीक देखकर के ही खुश हो जाते हैं। शरीर के भी नॉलेजफुल, आत्मा के भी नॉलेजफुल। चाहे पिछला हिसाब–किताब चुक्तू करना ही पड़ता है लेकिन नॉलेजफुल होने से सहज चुक्तू हो जाता है। तरीका आ जाता है ना। चलने का और चलाने का दोनों तरीके आ जाते हैं। फिर भी सेवा का बल दुआओं का काम कर रहा है। यह दुआयें दवाई का काम कर रही हैं। सेवा का उमंग आता है ना जल्दी–जल्दी तैयार हो जाएं तो सेवा करें। तो वह उमंग जो आता है ना, वह उमंग सूली से कांटा कर देता है। अच्छा है, फिर भी हिम्मत अच्छी है।
सभा से :-
निमित्त आत्माओं को देखकर के खुश होते हो ना। अभी अव्यक्त वर्ष में हर एक कोई न कोई कमाल करके दिखाओ। सेवा में कमाल हो रही है, वह तो होनी है। लेकिन पर्सनल पुरुषार्थ में ऐसी कमाल दिखाओ जो देखने वाले कहें कि हाँ, कमाल है! दूसरे के मुख से निकले कि कमाल है। सिर्फ यह नहीं कि चल तो रहे हैं, बढ़ तो रहे हैं। लेकिन कमाल क्या की?
कमाल उसको कहा जाता है जो असम्भव को कोई सम्भव करके दिखाये, मुश्किल को सहज करके दिखाये। जो कोई के स्वप्न में भी नहीं हो वह बात साकार में करके दिखाये इसको कहा जाता है कमाल। समय प्रमाण कमाल होना वह और बात है। वह तो होनी ही है, हुई पड़ी है। लेकिन स्व के अटेन्शन से कोई ऐसी कमाल करके दिखाओ।
ब्रह्मा बाप के 25 वर्ष पूरे हुए। जब कोई भी उत्सव मनाना होता है, तो जिसका मनाते हैं उसको कोई न कोई दिल–पसन्द गिफ्ट दी जाती है। ब्रह्मा बाप के दिल–पसन्द क्या है? वह तो जानते ही हो ना। जो स्वयं को भी मुश्किल लगता हो ना, वो ऐसा सहज हो जाए जो स्वयं भी आप अनुभव करो तब कमाल है। ठीक है ना।
क्या करेंगे? बाप के दिल–पसन्द करके दिखाओ। क्या–क्या दिल–पसन्द है यह तो जानते हो ना। बाप को क्या पसन्द है, जानते हो ना। अच्छा! देखेंगे कौन–कौनसी गिफ्ट देते हैं? जैसे स्थूल गिफ्ट बड़े प्यार से ले आते हो ना। अच्छा है, डबल विदेशी अपना भाग्य अच्छी तरह से प्राप्त कर रहे हैं। वृद्धि कर रहे हो ना। वृद्धि करने वालों को पहले तपस्या के साथ त्याग करना ही पड़ता है। वृद्धि होती है तो खुश होते हो ना या समझते हो हमारे को कमी पड़ जायेगी? अच्छा है, वृद्धि अच्छी कर रहे हो। यह नहीं सोचो हमारा कम हो रहा है। बढ़ रहा है। सारी मशीनरी सूक्ष्मवतन की ही चल रही है।
वरदान:- “संगमयुग पर हर समय, हर संकल्प, हर सेकण्ड को समर्थ बनाने वाले ज्ञान स्वरूप भव!”
ज्ञान सुनने और सुनाने के साथ–साथ ज्ञान को स्वरूप में लाओ। ज्ञान स्वरूप वह है जिसका हर संकल्प, बोल और कर्म समर्थ हो। सबसे मुख्य बात – संकल्प रूपी बीज को समर्थ बनाना है। यदि संकल्प रूपी बीज समर्थ है तो वाणी, कर्म, सम्बन्ध सहज ही समर्थ हो जाता है। ज्ञान स्वरूप माना हर समय, हर संकल्प, हर सेकण्ड समर्थ हो। जैसे प्रकाश है तो अन्धियारा नहीं होता। ऐसे समर्थ है तो व्यर्थ हो नहीं सकता।
स्लोगन:- “सेवा में सदा जी हाज़िर करना – यही प्यार का सच्चा सबूत है। – ओम् शान्ति।
मधुबन मुरली:- सुनने के लिए लिंक को सेलेक्ट करे > “Hindi Murli”
गीत:- “ज्योति बिंदु परमात्मा से…………” , अन्य गीत सुनने के लिए सेलेक्ट करे > “PARMATMA LOVE SONGS”.
किर्प्या अपना अनुभव साँझा करे।
अच्छा – ओम् शान्ति।
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नोट: यदि आप “मुरली = भगवान के बोल“ को समझने में सक्षम नहीं हैं, तो कृपया अपने शहर या देश में अपने निकटतम ब्रह्मकुमारी राजयोग केंद्र पर जाएँ और परिचयात्मक “07 दिनों की कक्षा का फाउंडेशन कोर्स” (प्रतिदिन 01 घंटे के लिए आयोजित) पूरा करें।
खोज करो: “ब्रह्मा कुमारिस ईश्वरीय विश्वविद्यालय राजयोग सेंटर” मेरे आस पास.
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