6-2-2022 -”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन मुरली – रिवाइज: 06/01/90.
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“होलीहँस की परिभाषा”
“ओम् शान्ति”
आज ज्ञान-सागर बाप होलीहंसों का संगठन देख रहे हैं। होलीहंस अर्थात् स्वच्छता और विशेषता वाली आत्माएं। स्वच्छता अर्थात् मन-वचन-कर्म, सम्बन्ध सर्व में पवित्रता। पवित्रता की निशानी सदा ही सफेद रंग दिखाते हैं। आप होलीहंस भी सफेद वस्त्रधारी, साफ दिल अर्थात् स्वच्छता-स्वरूप हो। तन-मन और दिल से सदा बेदाग अर्थात् स्वच्छ हो। अगर कोई तन से अर्थात् बाहर से कितना भी स्वच्छ हो, साफ हो लेकिन मन से साफ न हो, स्वच्छ न हो तो कहते हैं कि पहले मन को साफ रखो।
साफ मन वा साफ दिल पर साहेब राज़ी होता है। साथ-साथ साफ दिल वाले की सर्व मुराद अर्थात् कामनायें पूरी होती हैं। हंस की विशेषता स्वच्छता अर्थात् साफ है, इसलिए आप ब्राह्मण आत्माओं को होलीहंस कहा जाता है। चेक करो कि मुझ होलीहंस आत्मा की चारों ही बातों में अर्थात् तन-मन-दिल और सम्बन्ध में स्वच्छता है?
सम्पूर्ण स्वच्छता वा पवित्रता यही इस संगमयुग में सबका लक्ष्य है इसलिए ही आप ब्राह्मण सो देवताओं को सम्पूर्ण पवित्र गाया जाता है। सिर्फ निर्विकारी नहीं कहते लेकिन संपूर्ण निर्विकारी कहा जाता है। 16 कला सम्पन्न कहा जाता है। सिर्फ 16 कला नहीं कहते लेकिन उसमें सम्पन्न। गायन आपके ही देवता रूप का है लेकिन बने कब? ब्राह्मण जीवन में वा देवता जीवन में? बनने का समय अब संगमयुग है इसलिए चेक करो कि कहाँ तक अर्थात् कितने परसेन्ट में स्वच्छता अर्थात् पवित्रता धारण की है?
तन की स्वच्छता अर्थात् सदा इस तन को आत्मा का मंदिर समझ उस स्मृति से स्वच्छ रखना। जितनी मूर्ति श्रेष्ठ होती है उतना ही मन्दिर भी श्रेष्ठ होता है। तो आप श्रेष्ठ मूर्तिया हो या साधारण हो? ब्राह्मण आत्माएं सारे कल्प में नम्बरवन श्रेष्ठ आत्मायें! ब्राह्मणों के आगे देवतायें भी सोने तुल्य हैं और ब्राह्मण हीरे तुल्य हैं! तो आप सभी हीरे की मूर्तियाँ हो। कितनी ऊंची हो गई! इतना अपना स्वमान जान इस शरीर रूपी मन्दिर को स्वच्छ रखो। सादा हो लेकिन स्वच्छ हो। इस विधि से तन की पवित्रता सदा रूहानी खुशबू का अनुभव करायेगी।
ऐसी स्वच्छता, पवित्रता कहाँ तक धारण हुई? देहभान में स्वच्छता नहीं होती लेकिन आत्मा का मन्दिर समझने से स्वच्छ रखते हो। और यह मन्दिर भी बाप ने आपको सम्भालने और चलाने के लिए दिया है। इस मन्दिर का ट्रस्टी बनाया है। आपने तो तन-मन-धन सब दे दिया ना! अभी आपका तो नहीं है। मेरा कहेंगे या तेरा कहेंगे? तो ट्रस्टीपन स्वत: ही नष्टोमोहा अर्थात् स्वच्छता और पवित्रता को अपने में लाता है। मोह से स्वच्छता नहीं, लेकिन बाप ने सेवा दी है – ऐसे समझ तन को स्वच्छ, पवित्र रखते हो ना वा जैसे आता है वैसे चलाते रहते हो? स्वच्छता भी रूहानियत की निशानी है।
ऐसे ही मन की स्वच्छता या पवित्रता इसकी भी परसेन्टेज देखो। सारे दिन में किसी भी प्रकार का अशुद्ध संकल्प मन में चला तो इसको सम्पूर्ण स्वच्छता नहीं कहेंगे। मन के प्रति बापदादा का डॉयरेक्शन है – मन को मेरे में लगाओ वा विश्व-सेवा में लगाओ। मनमनाभव – इस मंत्र की सदा स्मृति रहे। इसको कहते हैं मन की स्वच्छता वा पवित्रता। और किसी तरफ भी मन भटकता है तो भटकना अर्थात् अस्वच्छता। इस विधि से चेक करो कि कितनी परसेन्ट में स्वच्छता धारण हुई? विस्तार तो जानते हो ना?
तीसरी बात – दिल की स्वच्छता। इसको भी जानते हो कि सच्चाई ही सफाई है। अपने स्व-उन्नति अर्थ जो भी पुरुषार्थ है जैसा भी पुरुषार्थ है, वह सच्चाई से बाप के आगे रखना। तो एक – स्वयं के पुरुषार्थ की स्वच्छता। दूसरा – सेवा करते सच्ची दिल से कहाँ तक सेवा कर रहे हैं, इसकी स्वच्छता। अगर कोई भी स्वार्थ से सेवा करते हो तो उसको सच्ची सेवा नहीं कहेंगे। तो सेवा में भी सच्चाई-सफाई कितनी है? कोई-कोई सोचते हैं कि सेवा तो करनी ही पड़ेगी। जैसे लौकिक गवर्मेन्ट की ड्यूटी है, चाहे सच्ची दिल से करो, चाहे मजबूरी से करो, चाहे अलबेले बनके करो, करनी पड़ती है ना। कैसे भी 8 घण्टे पास करने ही हैं। ऐसे इस आलमाइटी गवर्मेन्ट द्वारा ड्यूटी मिली हुई है- ऐसे समझ के सेवा करना, इसको सच्ची सेवा नहीं कहा जाता।
ड्यूटी सिर्फ नहीं है लेकिन ब्राह्मण-आत्माओं का निज़ी संस्कार ही सेवा है। तो संस्कार स्वत: ही सच्ची सेवा के बिना रहने नहीं देते। तो ऐसे चेक करो कि सच्ची दिल से अर्थात् ब्राह्मण-जीवन के स्वत: संस्कार से कितने परसेन्ट की सेवा की? इतने मेले कर लिये, इतने कोर्स करा लिये लेकिन स्वच्छता और पवित्रता की परसेन्ट कितनी रही? ड्यूटी नहीं है लेकिन निजी संस्कार है, स्व-धर्म है, स्व-कर्म है।
चौथी बात – सम्बन्ध में स्वच्छता। इसका सार रूप में विशेष यह चेक करो कि सन्तुष्टता रूपी स्वच्छता कितने परसेन्ट में है? सारे दिन में भिन्न-भिन्न वैरायटी आत्माओं से सम्बन्ध होता है। तीन प्रकार के सम्बन्ध में आते हो। एक – ब्राह्मण परिवार के, दूसरा – आये हुए जिज्ञासू आत्माओं के, तीसरा – लौकिक परिवार के। तीनों ही सम्बन्ध में सारे दिन में स्वयं की सन्तुष्टता और सम्बन्ध में आने वाली दूसरी आत्माओं के सन्तुष्टता की परसेन्टेज कितनी रही? सन्तुष्टता की निशानी स्वयं भी मन से हल्के और खुश रहेंगे और दूसरे भी खुश होंगे।
असन्तुष्टता की निशानी – स्वयं भी मन से भारी होंगे। अगर सच्चे पुरुषार्थी हैं तो बार-बार न चाहते भी ये संकल्प आता रहेगा कि ऐसे नहीं बोलते, ऐसे नहीं करते तो अच्छा। यह बोलते थे, यह करते थे – यह आता रहेगा। अलबेले पुरुषार्थी को यह भी नहीं आयेगा। तो यह बोझ खुश रहने नहीं देगा, हल्का रहने नहीं देगा। सम्बन्ध की स्वच्छता अर्थात् सन्तुष्टता। यही सम्बन्ध की सच्चाई और सफाई है इसलिए आप कहते हो – “सच तो बिठो नच” अर्थात् सच्चा सदा खुशी में नाचता रहेगा।
तो सुना, होलीहंस की परिभाषा? अगर सत्यता की स्वच्छता नहीं है तो हंस हो लेकिन होलीहंस नहीं हो। तो चेक करो – सम्पन्न और सम्पूर्ण का जो गायन है, वह कहाँ तक बने हैं? अगर ड्रामा अनुसार आज भी इस शरीर का हिसाब समाप्त हो जाए तो कितनी परसेन्टेज में पास होंगे? वा ड्रामा को कहेंगे – थोड़ा समय ठहरो! यह तो सोचकर नहीं बैठे हो कि छोटे-छोटे तो जाने वाले हैं ही नहीं? एवररेडी का अर्थ क्या है? समय का इंतजार तो नहीं करते कि अभी 10-11 वर्ष तो हैं?
बहुत करके 2000 का हिसाब सोचते हैं! लेकिन सृष्टि के विनाश की बात अलग है, अपने को एवररेडी रखना अलग बात है, इसलिए यह उससे नहीं मिलाना। भिन्न-भिन्न आत्माओं का भिन्न-भिन्न पार्ट है इसलिए यह नहीं सोचो कि मेरा एडवांस पार्टी में तो नहीं है या मेरा तो विनाश के बाद भी पार्ट है! कोई आत्माओं का है लेकिन मैं एवररेडी रहूँ। नहीं तो अलबेलेपन का अंश प्रकट हो जायेगा। एवररेडी रहो, फिर चाहे 20 वर्ष जिंदा रहो कोई हर्जा नहीं। लेकिन ऐसे आधार पर नहीं रहना। इसको कहते हैं होलीहंस। ज्ञान-सागर के कण्ठे पर आये हो ना। तो आज होलीहंस की स्वच्छता सुनाई फिर विशेषता सुनायेंगे।
टीचर्स को चेक करना आता है ना! टीचर्स को विशेष समर्पित होने का भाग्य मिला हुआ है। चाहे प्रवृत्ति वाले भी मन से समर्पित हैं फिर भी टीचर्स का विशेष भाग्य है। काम ही याद और सेवा का है। चाहे खाना बनाती या कपड़े धुलाई करती – वह भी यज्ञ सेवा है। वह भी अलौकिक जीवन प्रति सेवा करती हो। प्रवृत्ति वालों को दोनों तरफ निभाना पड़ता है। आपको तो एक ही काम है ना, डबल तो नहीं है? जो सच्चाई और सफाई से बाप और सेवा में सदा लगे रहते हैं, उन्हें कोई और मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
सुनाया था कि योग्य टीचर का भण्डारा और भण्डारी सदा भरपूर रहेगा। फिक्र नहीं करना पड़ेगा – अगला मास कैसे चलेगा, मेला कैसे होगा, सेवा के साथ-साथ साधन स्वत: प्राप्त होंगे। रूहानी आकर्षण सेवा और सेवाकेन्द्र स्वत: ही बढ़ाती रहती है। जब ज्यादा सोचते हो कि जिज्ञासु क्यों नहीं बढ़ते, ठहरते क्यों नहीं, चले क्यों जाते… तो जिज्ञासू नहीं ठहरते। योगयुक्त होकर रूहानियत से आह्वान करते हो तो जिज्ञासू स्वत: ही बढ़ते हैं। ऐसे होता है ना?
तो मन सदा हल्का रखो, किसी प्रकार का बोझ नहीं रहे। किसी भी प्रकार का बोझ है चाहे अपना, चाहे सेवा का, चाहे सेवा साथियों का तो उड़ने नहीं देगा – सेवा भी ऊंची नहीं उठेगी इसलिए सदा दिल साफ और मुराद हांसिल करते रहो। प्राप्तियाँ आपके सामने स्वत: ही आयेंगी। क्या सुना? सर्व रूहानी प्राप्तियाँ हैं ही ब्राह्मणों के लिए तो कहाँ जायेंगी! अधिकार ही आप लोगों का है। अधिकार कोई छीन नहीं सकता। अच्छा!
“सर्व होलीहंसों को, चारों ओर के सच्चे साहेब को राज़ी करने वाले सच्ची दिल वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा स्वयं को एवररेडी रखने वाले नम्बरवन बच्चों को, सदा अपने को गायन योग्य सम्पूर्ण और सम्पन्न बनाने वाले, बाप के समीप बच्चों को, सदा अपने को अमूल्य हीरे तुल्य अनुभव करने वाले अनुभवी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।“
महाराष्ट्र ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात :-
सदा खुशहाल रहते हो? खुशहाल अर्थात् भरपूर, सम्पन्न। खुशहाली स्वयं को भी प्रिय औरों को भी प्रिय लगती है। जहाँ खुशहाली नहीं होती, उसे कांटों का जंगल कहते हैं। तो आप सबकी जीवन खुशहाल बन गई है। और चाल कौन सी हो गई? उड़ती कला वाली फरिश्तों की चाल हो गई। तो हाल भी अच्छा और चाल भी अच्छी। दुनिया वाले मिलते हैं तो हाल-चाल पूछते हैं ना! तो आपका क्या हालचाल है? हाल है खुशहाल और चाल है फरिश्तों की चाल। दोनों ही अच्छे हैं ना? खुशहाली में कोई कांटे नहीं आयेंगे।
पहले कांटों के जंगल में जीवन थी, अभी बदल गई। अभी फूलों की खुशहाली में आ गये। सदा जीवन में दिव्यगुणों के फूलों की फुलवाड़ी लगी हुई है। दिव्यगुणों के गुलदस्ते का चित्र बनाते हैं ना, वह दिव्यगुणों का गुलदस्ता कौन सा है? आप हो ना या दूसरे कोई हैं? कांटों का कभी गुलदस्ता नहीं बनता, फूलों का गुलदस्ता बनता है। सिर्फ पत्ते ही होंगे तो भी कहेंगे – गुलदस्ता ठीक नहीं है। तो आप स्वयं दिव्यगुणों का गुलदस्ता अर्थात् खुशहाल हो गये। जो भी आपके सम्पर्क में आयेगा उसे दिव्यगुणों के फूलों की खुशबू आती रहेगी और खुशहाली देख करके खुश होंगे शक्ति का भी अनुभव करेंगे।
इसलिए आजकल डॉक्टर्स भी कहते हैं – बगीचे में जाकर पैदल करो। तो खुशहाली औरों को भी शक्तिशाली बनाती है और खुशी में भी लाती है इसलिए आप लोग कहते हो कि हम एवरहैप्पी हैं। चैलेंज भी करते हो कि अगर किसी को एवरहैप्पी बनना हो तो हमारे पास आये। आप सभी को बाप की स्मृति दिलायेंगे। तो एवरहेल्दी, एवरवेल्दी और एवरहैपी – यह आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। यह अधिकार आपको तो मिल गया ना? सभी को कहते हो कि जन्म-सिद्ध अधिकार है।
चाहे शरीर बीमार भी हो तो भी मन तन्दरूस्त है ना। मन खुश तो जहान खुश और मन बीमार तो शरीर पीला हो जाता है। मन ठीक होगा तो शरीर का रोग भी महसूस नहीं होगा। ऐसे होता है ना! क्योंकि आपके पास खुशी की खुराक बहुत बढ़िया है। दवाई अच्छी होती है तो बीमारी भाग जाती है। आपके पास जो खुशी की खुराक है वह बीमारी को भगा देती है, भुला देती है। तो मन खुश, जहान खुश, जीवन खुश इसलिए एवरहेल्दी भी हो, वेल्दी भी हो और हैपी भी हो। जब स्वयं हो तब दूसरे को चैलेन्ज कर सकते हो। नहीं तो चैलेन्ज नहीं कर सकते।
अपने को देखकर औरों के ऊपर रहम आता है क्योंकि अपना परिवार है ना! चाहे कैसी भी आत्मायें हैं लेकिन हैं तो एक ही परिवार के। जिसको भी देखेंगे तो महसूस करेंगे कि यह हमारा ही भाई है, हमारे ही परिवार का है। परिवार में भी कोई नजदीक के होते हैं, कोई दूर के होते हैं, लेकिन कहेंगे तो परिवार के ना?
जैसे बाप रहमदिल है। बाप से यही मांगते हैं कि कृपा करो, रहम करो! तो आप भी कृपा करेंगे, रहम करेंगे ना क्योंकि बाप समान निमित्त बने हुए हो। ब्राह्मण आत्मा को कभी भी किसी आत्मा के प्रति घृणा नहीं आ सकती। रहम आयेगा, घृणा नहीं आ सकती। क्योंकि जानते हैं कि चाहे कंस हो, चाहे जरासंधी हो, चाहे रावण हो – कोई भी हो लेकिन फिर भी रहमदिल बाप के बच्चे घृणा नहीं करेंगे। परिवर्तन की भावना रखेंगे, कल्याण की भावना रखेंगे। फिर भी अपना परिवार है, परवश है। परवश के ऊपर कभी घृणा नहीं आती। सभी माया के वश है। तो परवश के ऊपर दया आती है, रहम आता है। जहाँ घृणा नहीं आयेगी वहाँ क्रोध भी नहीं आयेगा। जब घृणा आती है तो जोश आता है, क्रोध आता है, जहाँ रहम होता है वहाँ शान्ति का दान देंगे। दाता के बच्चे हो ना! तो शान्ति देंगे ना! अच्छा।
वरदान:- ज्ञान खजाने द्वारा मुक्ति-जीवनमुक्ति का अनुभव करने वाले सर्व बंधनमुक्त भव I
ज्ञान रत्नों का खजाना सबसे श्रेष्ठ खजाना है, इस खजाने द्वारा इस समय ही मुक्ति-जीवनमुक्ति की अनुभूति कर सकते हो। ज्ञानी तू आत्मा वह है जो दु:ख और अशान्ति के सब कारण समाप्त कर, अनेकानेक बन्धनों की रस्सियों को काटकर मुक्ति वा जीवनमुक्ति का अनुभव करे। अनेक व्यर्थ संकल्पों से, विकल्पों से और विकर्मो से सदा मुक्त रहना – यही मुक्त और जीवनमुक्त अवस्था है।
स्लोगन:- विश्व परिवर्तक वह है जो अपनी शक्तिशाली वृत्तियों से वायुमण्डल को परिवर्तन कर दे।
*** “ॐ शान्ति”। ***
-: ”लवलीन स्थिति का अनुभव करो” :-
गीत:- अन्य गीत सुनने के लिए सेलेक्ट करे > “PARAMATMA LOVE SONGS”
मधुबन मुरली:- सुनने के लिए लिंक को सेलेक्ट करे > “Hindi Murli”
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आप से निवदेन है :-
किर्प्या अपना अनुभव जरूर साँझा करे । [नीचे जाये ]
धन्यवाद – “ॐ शान्ति”।
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