19-11-2021 -”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन मुरली
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“मीठे बच्चे – सर्विस के साथ-साथ याद की यात्रा को भी कायम रखना है, इस रूहानी यात्रा में कभी ठण्डे नहीं होना”
प्रश्नः– बच्चों की दिल अगर रूहानी सर्विस में नहीं लगती तो उसका कारण क्या है?
उत्तर:- अगर रूहानी सर्विस में दिल न लगे तो जरूर देह-अभिमान की ग्रहचारी है। चलते-चलते देह अभिमान के कारण जब आपस में रूठ पड़ते हैं तो सर्विस ही छोड़ देते हैं। एक दो की शक्ल देखते ही सर्विस के ख्याल उड़ जाते हैं इसलिए बाबा कहते इस ग्रहचारी से सम्भाल करो।
गीत:- हमारे तीर्थ न्यारे हैं…. ,मधुबन मुरली:- Hindi Murli I सुनने व देख़ने के लिए लिंक को सेलेक्ट करे I
ओम् शान्ति।
इस गीत की लाइन ने बच्चों को खबरदार कर दिया। क्या कहा? बुद्धि में यह याद रखना है कि हम तीर्थ यात्रा पर हैं और हमारी यह यात्रा सबसे न्यारी है। इस यात्रा को भूलो मत। यात्रा पर ही सारा मदार है और तो जिस्मानी यात्राओं पर जाकर फिर लौट आते हैं और जन्म-जन्मान्तर यात्रा करते ही आते हैं। हमारे तीर्थ वह नहीं हैं। अमरनाथ में जाकर फिर मृत्युलोक में चले आना। तुम्हारी वह यात्रा नहीं है और सब मनुष्यों की वह यात्रायें हैं। तीर्थ पर जाकर, चक्र लगाकर फिर आए पतित बन जाते हैं। किसम-किसम की यात्रायें हैं ना। देवी के मन्दिर भी अथाह हैं। विकारियों के साथ कितने यात्रा पर जाते हैं।
तुम बच्चों ने तो प्रण किया हुआ है – निर्विकारी रहने का। तुम निर्विकारियों की यह यात्रा है। निर्विकारी बाप जो एवर-प्योर है, उनको याद करना है। पानी के सागर को विकारी वा निर्विकारी नहीं कहेंगे। और न उनसे निकली हुई गंगायें ही निर्विकारी बनायेंगी। मनुष्य मात्र इतने तो पतित बन पड़े हैं, कुछ भी समझते ही नहीं। वह जिस्मानी यात्रायें हैं – अल्पकाल क्षणभंगुर की यात्रायें।
यह यात्रा बड़ी है। तुम बच्चों को उठते बैठते यात्रा का ख्याल रखना है। यात्रा पर जाते हैं तो धन्धाधोरी गृहस्थ व्यवहार आदि सब भूलना होता है। अमरनाथ की जय… बस ऐसे कहते जाते हैं। मास दो मास तीर्थ यात्रा कर फिर आकर गंद में पड़ते हैं। फिर जाते हैं गंगा स्नान करने। उनको यह पता ही नहीं है कि हम रोज़ पतित होते हैं। गंगा जमुना पर रहने वाले भी रोज़ पतित होते हैं। रोज़ गंगा पर जाकर स्नान करते हैं। एक तो नियम होता है, दूसरे फिर बड़े दिनों पर जाते हैं समझते हैं कि गंगा पतित-पावनी है। ऐसे तो नहीं खास उस एक दिन पर गंगा पावन बनाने वाली बनती है, फिर नहीं रहती। जिस दिन मेला लगता है उस दिन वह पतित-पावनी बन जाती है। नहीं। वह तो है ही है। रोज़ भी जाते हैं स्नान करने। मेले पर भी खास दिन जाते हैं। अर्थ नहीं। गंगा जमुना चीज़ तो वही है। उसमें मुर्दे भी डाल देते हैं।
अभी तुम बच्चों को रूहानी यात्रा पर रहना है। बस अब हम जाते हैं घर। इसमें गंगा स्नान करने वा शास्त्र पढ़ने की कोई बात ही नहीं। बाप आते भी एक ही बार हैं। सारी दुनिया भी पतित से पावन एक ही बार बनती है। यह भी जानते हैं सतयुग है नई दुनिया, कलियुग है पुरानी दुनिया। बाप को आना है जरूर। नई दुनिया की स्थापना और पुरानी दुनिया का विनाश करने। यह उनका ही काम है। परन्तु माया ने ऐसा तमोप्रधान बुद्धि बना दिया है जो कुछ भी समझते नहीं। प्रदर्शनी में कितने ढ़ेर बड़े आदमी आते हैं। संन्यासी भी आयेंगे फिर भी समझेंगे कोटों में कोई। तुम लाखों करोड़ों को समझाते हो तब कोई विरला आता है। बहुतों को समझाना होगा। आखरीन तुम्हारी यह समझानी और चित्र आदि सब अखबारों में भी पड़ेंगे। सीढ़ी भी अखबार में पड़ेगी। कहेंगे यह तो भारत के लिए ही है और धर्म वाले कहाँ जायेंगे। कयामत का समय भी गाया हुआ है। कयामत अर्थात् वापिस जाने का। पुरानी दुनिया का विनाश नई दुनिया की स्थापना होगी तो जरूर सब वापिस जायेंगे ना। सबका विनाश होना है। नई दुनिया स्थापन हो रही है। यह बातें कोई नहीं जानते सिवाए तुम बच्चों के।
तुम जानते हो नर्कवासियों का विनाश, स्वर्गवासियों की स्थापना हो रही है। कल्प-कल्प ऐसा ही होता है। अभी जो थोड़ा बहुत टाइम है, इसमें भी बहुतों को समझानी मिलती जायेगी। मेले होते रहेंगे। सब तरफ से लिखते रहते हैं हम मेला करें, प्रदर्शनी करें। परन्तु साथ-साथ अपनी याद की यात्रा भी भूलनी नहीं चाहिए। बच्चे बिल्कुल ही ठण्डे चल रहे हैं। यात्रा ऐसे करते हैं जैसे बूढ़े। जैसे ताकत ही नहीं, कुछ खाया ही नहीं है। बाबा का कितना ख्याल चलता रहता है। ख्यालात करते-करते नींद ही फिट जाती है। विचार सागर मंथन तो सबको करना चाहिए ना। बच्चे जानते हैं हमको बेहद का बाप पढ़ाते हैं। तो बच्चों को कितना अपार खुशी होनी चाहिए। इस पढ़ाई से हम विश्व के मालिक बनते हैं।
कोई-कोई की तो चलन ऐसी है – जैसे केकड़े हैं। केकड़ों को बाप देवता बनाते हैं। फिर भी चलन मुश्किल किसकी सुधरती है। इस सीढ़ी के चित्र में बड़ी अच्छी नॉलेज है। परन्तु बच्चे इतना काम नहीं करते। यात्रा ही नहीं करते। बाप को याद करें तो बुद्धि का ताला भी खुलता जाए। गोल्डन बुद्धि बनती जाए। तुम बच्चों की पारसबुद्धि होनी चाहिए, बहुतों का कल्याण करना चाहिए। तुम सतोप्रधान से अब तमोप्रधान बने हो, फिर सतोप्रधान बनना है। बाप कहते हैं मुझे याद करो।
कृष्ण को भगवान नहीं कहा जा सकता। उनको तो कहते हैं सांवरा-श्याम। बाप ने सांवरे की आत्मा को बैठ फिर समझाया है। यह आत्मा जानती है कि बाबा हमको विश्व का मालिक बनाते हैं तो खुशी में कितना दिमाग पुर (भरपूर) होना चाहिए। इसमें घमन्ड की कोई बात नहीं। बाप कितना निरहंकारी है। बुद्धि में कितनी खुशी रहती है। कल हम हीरे जवाहरों के महल बनायेंगे। नई दुनिया में राजधानी चलायेंगे। यह तो बिल्कुल पतित दुनिया है। इस दुनिया के मनुष्य तो कोई काम के नहीं, कुछ नहीं जानते हैं। यह भी दिखाना चाहिए – हीरे जैसा जीवन था। वही फिर 84 जन्म ले कौड़ी मिसल बन जाते हैं। यह सीढ़ी का चित्र नम्बरवन है। फिर दूसरे नम्बर में है त्रिमूर्ति।
तुम कहते हो – निकट भविष्य में श्रेष्ठाचारी भारत बन जायेगा। श्रेष्ठाचारी दुनिया में बहुत थोड़े मनुष्य होंगे, अभी कितने ढेर मनुष्य हैं। महाभारत लड़ाई भी सामने खड़ी है। सब आत्मायें मच्छरों सदृश्य जायेंगी। आग भड़क रही है। जितना कोशिश करते हैं सुधारने की, उतना ही बिगड़ते जाते हैं। बाप बच्चों को राजयोग सिखला रहे हैं। बच्चों को कितना नशा चढ़ाते हैं। कोई-कोई तो यहाँ से बाहर निकले, सारा ज्ञान उड़ जाता है। स्मृति कुछ भी रहती नहीं। नहीं तो शौक हो कि जाकर सर्विस करें। बाप भी गुण देख सर्विस पर भेजेंगे ना। इसमें बड़े हर्षित रहेंगे। सर्विस में खुशी का पारा चढ़ेगा। अच्छे-अच्छे पुराने बच्चे आपस में रूठ पड़ते हैं थोड़ी-थोड़ी बात में। ऐसे थोड़ेही इन बातों के कारण तुमको सर्विस नहीं करनी है। सर्विस तो खुशी से करनी चाहिए। जिसके साथ बनती नहीं है, उसकी शक्ल देखने से ही सर्विस का ख्याल उड़ जाता है। सर्विस में दिल नहीं लगती है तो किनारा कर लेते हैं। फिर तो ज्ञानी और अज्ञानी में कोई फ़र्क नहीं रहा। देह-अभिमान की ग्रहचारी आकर बैठती है। यह है पहले नम्बर की बीमारी।
बाप कहते हैं – बच्चे देही-अभिमानी बनो। आत्मा ही सब कुछ करती है ना। आत्मा ही विकारी और निर्विकारी बनती है। स्वर्ग में निर्विकारी थी। रावणराज्य में आत्मा ही विकारी बनी है। यह भी ड्रामा ऐसा बना हुआ है इसलिए पुकारते हैं हे पतित-पावन आओ। जो निर्विकारी थे, वही पतित विकारी बने हैं। यह किसकी भी बुद्धि में नहीं है कि हम ही निर्विकारी थे, अब विकारी बने हैं। हम आत्मा मूलवतन की रहने वाली हैं। वहाँ तो हम आत्मा निर्विकारी होंगे। यहाँ शरीर में आकर पार्ट बजाते-बजाते विकारी बने हैं। यह बाप बैठ समझाते हैं। आत्मा शान्तिधाम से आती है तो जरूर पवित्र ही होगी फिर अपवित्र बनी है।
पवित्र दुनिया में 9 लाख होते हैं। फिर इतनी सब आत्मायें कहाँ से आई? जरूर शान्तिधाम से आई होंगी। वह है पीसफुल इनकॉरपोरियल वर्ल्ड। वहाँ सब आत्मायें पवित्र रहती हैं फिर पार्ट बजाते-बजाते, सतो-रजो-तमो में आती हैं। पावन से पतित होना है। फिर बाप आकर सबको पावन बनायेंगे। यह ड्रामा चलता ही रहता है। ड्रामा के आदि-मध्य-अन्त का राज़ बाप के सिवाए और कोई बतला न सके। उस बाप को कोई जानते ही नहीं हैं। ऋषि-मुनि भी नेती-नेती कह गये। हम भगवान को और उनकी रचना को नहीं जानते हैं। फिर कहते भी हैं – गॉड फादर इज़ नॉलेजफुल। वह परमात्मा सर्व आत्माओं का बाप, बीजरूप है। वह है आत्माओं का बीजरूप और यह प्रजापिता ब्रह्मा है मनुष्य सृष्टि का बीजरूप। वह निराकार बाप इसमें प्रवेश कर मनुष्यों को समझाते हैं, मनुष्य द्वारा। उनको मनुष्य सृष्टि का बीजरूप नहीं कहेंगे। वह है आत्माओं का पिता और यह ब्रह्मा है मनुष्य सृष्टि का प्रजापिता, जिस द्वारा बाप आकर ज्ञान देते हैं। शरीर अलग, आत्मा अलग है ना। मन-बुद्धि चित आत्मा में है। आत्मा आकर शरीर में प्रवेश करती है, पार्ट बजाने के लिए।
तुम जानते हो कोई शरीर छोड़ते हैं तो जाकर दूसरा पार्ट बजायेंगे, इसमें रोने से क्या होगा। गया सो गया फिर थोड़ेही आकर हमारा मामा, चाचा बनेगा। रोने से क्या फायदा। तुम्हारी मम्मा गई, ड्रामा अनुसार पार्ट बजा रही है। ऐसे बहुत जाते हैं। कोई कहाँ जाए जन्म लेते हैं। यह समझ में आता है जैसा-जैसा आज्ञाकारी बच्चा होगा उतना जरूर अच्छे घर में जन्म लिया होगा। यहाँ के जायेंगे ही अच्छे घर में। नम्बरवार तो होते हैं ना। जैसा जो कर्म करते हैं – ऐसे घर में जाते हैं। पिछाड़ी में तुम जाकर राजाई घर में जन्म लेते हो। कौन राजाओं के पास जायेंगे, वह खुद समझ सकते हैं ना। फिर भी दैवी संस्कार तो ले जाते हैं ना। इसमें बड़ी विशाल बुद्धि से विचार सागर मंथन करना होता है। बाप ज्ञान का सागर है। तो बच्चों को भी ज्ञान का सागर बनना है। नम्बरवार तो होते ही हैं। समझा जाता है – आगे चल उन्नति होती जायेगी। हो सकता है जो आज काम नहीं कर सकते हैं, वह कल बहुतों से तीखे चले जाएं। ग्रहचारी उतर जाए। कोई पर राहू की ग्रहचारी बैठती है तो गटर में गिर पड़ते हैं। हडगुड ही टूट जाते हैं।
बेहद के बाप से प्रतिज्ञा कर फिर गिरते हैं तो धर्मराज द्वारा सजायें भी बहुत मिलती हैं। यह बेहद का बाप, बेहद का धर्मराज है, फिर बेहद की सजा मिलती है। कोई बात में आनाकानी करेंगे या उल्टा काम करेंगे तो सजा जरूर खायेंगे। समझते नहीं कि हम भगवान की अवज्ञा करते हैं। इतनी सब बातें बाप समझाते रहते हैं। श्रीमत पर चलो, सर्विस में मददगार बनो। योग की यात्रा पर रहो। चित्रों पर समझाने की प्रैक्टिस करेंगे तो आदत पड़ जायेगी। नहीं तो ऊंच पद कैसे मिलेगा। अज्ञानकाल में कोई का बच्चा बड़ा सपूत होता है, कोई तो बड़े कपूत भी होते हैं। यहाँ भी कोई-कोई तो झट बाबा का काम कर दिखाते हैं। तो बच्चों को सर्विस बेहद की करनी है। बेहद की आत्माओं का कल्याण करना है। पैगाम देना है – मनमनाभव। बाप को याद करने से तुम्हारी बुद्धि तमोप्रधान से सतोप्रधान बन जायेगी। अभी है कलियुगी तमोप्रधान दुनिया की इन्ड। अब सतोप्रधान बनना है। आत्माओं की भी वहाँ नम्बरवार दुनिया है ना, जो फिर नम्बरवार आकर पार्ट बजाते हैं। आयेंगे भी नम्बरवार ड्रामा अनुसार।
अभी सब आत्मायें रावण राज्य में दु:खी हैं। सो भी समझते थोड़ेही हैं। अगर किसको कह दो तुम पतित हो तो बिगड़ पड़ेंगे। बाप समझाते हैं यह है ही विशश वर्ल्ड। बाप कहते हैं – तुम अपना राज्य-भाग्य ले लेंगे। बाकी सब विनाश हो वापिस चले जाने वाले हैं। यह तो गाया हुआ है महाभारत लड़ाई लगनी है, जिससे सब धर्म खलास हो बाकी एक धर्म रहेगा। यह लड़ाई के बाद स्वर्ग के द्वार खुलते हैं। कितनी अच्छी रीति बच्चों को समझाते हैं। आगे चल तुम्हारी बातें सुनते रहेंगे और आते जायेंगे। सूर्यवंशी चन्द्रवंशी जो पतित बन गये हैं वही आकर नम्बरवार अपना वर्सा लेंगे। प्रजा तो ढेर बनेंगी।
अच्छा! मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।
धारणा के लिए मुख्य सार:-
1) भगवान की आज्ञाओं की अवज्ञा कभी नहीं करनी है। बेहद सेवा में सपूत बच्चा बन मददगार बनना है।
2) ज्ञान धन की गुप्त खुशी से बुद्धि को भरपूर रखना है। आपस में कभी भी रूठना नहीं है।
वरदान:- सर्व शक्तियों की सम्पत्ति से सम्पन्न बन दाता बनने वाले विधाता, वरदाता भव
जो बच्चे सर्व शक्तियों के सम्पत्तिवान हैं – वही सम्पन्न और सम्पूर्ण स्थिति के समीपता का अनुभव करते हैं। उनमें कोई भी भक्तपन के वा भिखारीपन के संस्कार इमर्ज नहीं होते, बाप की मदद चाहिए, आशीर्वाद चाहिए, सहयोग चाहिए, शक्ति चाहिए – यह चाहिए शब्द दाता विधाता, वरदाता बच्चों के आगे शोभता ही नहीं। वे तो विश्व की हर आत्मा को कुछ न कुछ दान वा वरदान देने वाले होते हैं।
स्लोगन:- हर आत्मा को कोई न कोई प्राप्ति कराने वाले वचन ही सत वचन हैं।
*** ॐ शान्ति। ***