11-9-2022 -”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन मुरली. रिवाइज: 8-4-1992: “ब्रह्मा बाप से प्यार की निशानी है – अव्यक्त फरिश्ता बनना”

“ब्रह्मा बाप से प्यार की निशानी है – अव्यक्त फरिश्ता बनना

“ओम् शान्ति”

आज बेहद का बाप अपनी आदि श्रेष्ठ डायरेक्ट रचना को देख रहे हैं। ब्राह्मण आत्मायें डायरेक्ट शिव वंशी ब्रह्माकुमार और कुमारियाँ हो। ब्राह्मण आत्मायें आदि देव की आदि रचना हो इसलिए कल्प वृक्ष में ब्राह्मण फाउण्डेशन अर्थात् जड़ में दिखाये गये हैं। अपना स्थान देखा है ना? तो वृक्ष में आप आदि रचना बीज के समीप जड़ में दिखाये गये हो इसलिए डायरेक्ट रचना हो। अन्य आत्मायें डायरेक्ट मात पिता अर्थात् शिव बाप और ब्रह्मा माता अर्थात् डायरेक्ट परमात्म रचना नहीं हैं। आप डायरेक्ट मात-पिता की रचना हो, फर्क है ना!

शिव बाबा व ब्रह्मा बाबा, Shiv BABA & Brhama BABA
शिव बाबा व ब्रह्मा बाबा, Shiv BABA & Brhama BABA

आप आदि रचना और अन्य धर्म आत्माओं की रचना दोनों में अन्तर है। आप परमात्म रचना अपने रचता मात पिता दोनों को अच्छी तरह से जानते हो। अन्य धर्म की आत्मायें आप तना से निकली हैं। आप जड़ भी हो और तना भी हो। ब्राह्मण रूप में वृक्ष की जड़ में हो और देवता रूप में वृक्ष के तना हो और सभी धर्म आप तना से निकलते हैं। तो आप डायरेक्ट रचना का कितना महत्व है! डायरेक्ट बीज के साथ सम्बन्ध है, उन्हों का इनडायरेक्ट सम्बन्ध है, आपका डायरेक्ट है। आप सभी रूहानी नशे से कहेंगे कि हम परमात्म सन्तान हैं।

जो भी धर्म वाली आत्मायें आती हैं वह सभी अपने को क्रिश्चियन, बौद्धि, इस्लामी कहलायेंगी। डायरेक्ट शिव वंशी वा आदि देव ब्रह्मा की रचना नहीं कहलायेंगी। क्राइस्टवंशी क्रिश्चियन कहेंगे धर्म पिता क्राइस्ट के क्रिश्चियन हैं – यही जानते हैं। वह सभी धर्म पिता के वंश है। और आप कहेंगे परमात्मा के। तो धर्म पिता और परमपिता – कितना अन्तर है! डबल विदेशी क्या समझते हैं परमपिता के हो या धर्म पिता के हो? परमपिता के अर्थात् डायरेक्ट रचना होना। तो डायरेक्ट और इनडायरेक्ट में कितना अन्तर है! नशे में भी अन्तर है तो प्राप्ति में भी अन्तर है इसलिए भक्तिमार्ग में भी इनडायरेक्ट अपने इष्ट द्वारा बाप को याद करते हैं।

अगर कोई शिव भक्त भी हैं तो वो भी शिव शंकर एक मान करके याद करते हैं। तो इनडायरेक्ट हो गया ना! जानते भी हैं कि राम का भी रामेश्वर है लेकिन फिर भी याद राम को ही करेंगे। तो भक्ति इनडायरेक्ट हो गई ना क्योंकि भक्त आत्माओं की रचना भी पीछे की आत्मायें हैं। आप डायरेक्ट परमात्म वंशी आत्मायें हो। द्वापर में भक्ति भी करते हो, तो बिना पहचान के भी पहले शिव बाप की भक्ति करते हो। ब्रह्मा, विष्णु, शंकर यह सूक्ष्म देवताओं की पूजा पीछे शुरू होती है, आदि में नहीं। तो अन्य आत्माएं रचना भी इनडायरेक्ट आत्माओं द्वारा हैं और भक्ति में भी इनडायरेक्ट भक्ति है। आप डायरेक्ट भक्त हो, इनडायरेक्ट नहीं अर्थात् शिव की पूजा ही आरम्भ करते हो।

तो प्राप्ति में भी देखो आप डायरेक्ट आत्माओं अर्थात् डायरेक्ट रचना को अनेक जन्मों के लिए वर्सा जीवन-मुक्ति का मिलता है। अन्य आत्माओं को जीवन-मुक्ति का वर्सा इतने समय का नहीं मिलता है। आपकी जीवन-मुक्ति आधाकल्प चलती है और अन्य आत्माओं को जीवन-मुक्ति और जीवन-बन्ध दोनों ही आधाकल्प के अन्दर मिलता है। वह भी द्वापर से आदि वाली आत्माओं को। पीछे वाली आत्माओं को तो थोड़े जन्मों में ही दोनों ही प्राप्ति होती है। और विशेषता यही है कि आपकी जीवन-मुक्ति अर्थात् गोल्डन, सिल्वर एज चक्र के भी गोल्डन, सिल्वर समय पर प्राप्त होती है। आपकी गोल्डन एज है तो युग भी गोल्डन एज का है, प्रकृति भी गोल्डन एज है। चक्र को अच्छी तरह से जानते हो ना

विश्व सृष्टि चक्र , World Drama Wheel
विश्व सृष्टि चक्र , World Drama Wheel

और अन्य आत्माओं की जब गोल्डन एज है तो युग कॉपर एज या आयरन एज है, कॉपर एज में उन्हों की गोल्डन एज है और आप की गोल्डन एज में गोल्डन एज है। कितना अन्तर हुआ! आप सतोप्रधान हैं तो प्रकृति भी सतोप्रधान है। वह रजोप्रधान प्रकृति में सतोप्रधान स्टेज का अनुभव करते हैं। तो डायरेक्ट और इनडायरेक्ट रचना का कितना अन्तर है! इतना नशा है कि हम डायरेक्ट परमात्म रचना हैं! सदा नशा रहता है या कभी-कभी नशा चढ़ता है? परसेन्टेज में फर्क पड़ जाता है, कभी 100 परसेन्ट रहता है, तो कभी 50 परसेन्ट लेकिन रहना क्या चाहिए? सदा एकरस रहना चाहिए ना!

तो चाहिए-चाहिए कब तक कहेंगे? सदा नशा रहता है, यह फलक से नहीं कहते हो, रहना चाहिए कहते हो। तो सम्पूर्ण बनना अर्थात् जिसमें यह चाहिए शब्द समाप्त हो जाये, सभी के मुख से यह निकले कि सदा है, उसके लिए कितने वर्ष चाहिए? बाप भी चाहिए पूछता है। कितने वर्ष चाहिए, 10 चाहिए कि उससे भी ज्यादा वा कम चाहिए? क्योंकि तपस्या वर्ष आरम्भ किया, अब तो समाप्ति का समय आ गया, लेकिन जब आरम्भ किया तो सबने क्या संकल्प किया? सम्पन्न बन जायेंगे – यही सोचा था ना।

वर्ष तो समाप्त हुआ लेकिन आप सम्पन्न हो गये या होना है? और वर्ष चाहिए? औरों को चैलेन्ज करते हो कि सेकेण्ड में मुक्ति जीवन-मुक्ति का वर्सा लो। या कहते हो 25 वर्ष में वर्सा लो? तो 12 मास में कितने सेकेण्ड कितने दिन हुए? तो सबको सम्पन्न बन जाना चाहिए या अभी और समय चाहिए, क्या रिजल्ट है? कितने वर्ष चाहिए यह बता दो, नहीं तो दूसरा वर्ष समाप्त होगा फिर यही गीत गायेंगे कि अभी समय चाहिए।

यह चाहिए चाहिए का गीत कितने समय का है? गीत का भी 3 वा 5 मिनट टाइम होता है ना। तपस्या वर्ष में दृढ़ संकल्प किया या संकल्प किया? दृढ़ता की निशानी है सफलता। फिर तो इस वर्ष और फोर्स की तपस्या चाहिए ना। या सेवा करनी है? दोनों नहीं कर सकते हो? आपका कर्मयोगी टाइटिल नहीं है, योगी हैं? वैसे देखा जाये तो सेवा उसको ही कहा जाता है जिसमें स्व और सर्व की सेवा समाई हुई हो। दूसरे की सेवा करें और अपनी सेवा में अलबेले हो जाएं तो उसको वास्तव में यथार्थ सेवा नहीं कहेंगे। सेवा की परिभाषा ही है – सेवा के मेवे मिलते हैं। सेवा अर्थात् मेवा – फ्रुट (फल), प्रत्यक्षफल। सेवा करो, मेवा खाओ।

True Pilgrimage is to go Home with The Father - Fruits of service ,  सच्चा तीरथ अब पिता संग घर जाना है। - सेवा का फल।
True Pilgrimage is to go Home with The Father – Fruits of service , सच्चा तीरथ अब पिता संग घर जाना है। – सेवा का फल।

अगर स्व के तरफ अलबेले बन जाते हो तो वह सेवा मेहनत है, खर्चा है, थकावट है, लेकिन प्रत्यक्षफल सफलता नहीं है। पहले स्व को सफलता, साथ में औरों को भी सफलता की अनुभूति हो। साथ-साथ हो। स्व को हो और औरों को नहीं हो तो भी यथार्थ सेवा नहीं है। और औरों को हो, स्व को नहीं हो तो भी यथार्थ सेवा नहीं है। तो सेवा में सेवा और योग दोनों ही साथ-साथ क्यों नहीं रहता, उसका कारण क्या है? एक को देखते हो तो दूसरा ढीला होता है, दूसरे को देखते हो तो पहला ढीला होता – इसका कारण क्या है? कारण है कि सेवा के प्लैन (योजना) तो बहुत अच्छे-अच्छे बनाते हो लेकिन प्लेन (स्वच्छ) बुद्धि बन प्लैन नहीं बनाते। प्लेन बुद्धि अर्थात् सेवा करते और कोई भी बात बुद्धि को टच नहीं करें, सिवाए निमित्त भाव और निर्माण भाव।

निर्माण करते निर्मान स्थिति की कमी हो जाती है इसलिए निर्माण का कार्य जितना सफल करने चाहते हो उतना सफल नहीं होता है। शुभ-भावना वा शुभ-कामना का बीज ही है निमित्त-भाव और निर्मान-भाव। हद का मान नहीं लेकिन निर्मान, इसलिए सेवा के प्लैन बनाने के पहले प्लेन बुद्धि बनाना अति आवश्यक है। नहीं तो प्लेन बुद्धि के बजाए अगर बुद्धि में और अयथार्थ भाव का किचड़ा मिक्स हो जाता है तो जो सेवा का प्लैन बनाते हो उसमें भी रत्न जड़ित के साथ-साथ पत्थर भी जड़ जाते हैं। रत्न और पत्थर मिक्स हो जाते हैं।

9 रत्न जड़ेंगे तो एक पत्थर मिक्स करेंगे। कोई भी चीज़ में 9 रीयल हो और एक आर्टीफिशयल हो तो वैल्यु क्या होगी? और ही लेने वाले के भी संकल्प चलेंगे कि यह 9 भी रीयल है या मिक्स हैं? इसलिए सेवा के प्लैन के साथ-साथ प्लेन बुद्धि का अटेन्शन पहले रखो। अगर प्लेन बुद्धि है और सेवा का प्लैन इतना बड़ा नहीं भी है, फिर भी प्लेन बुद्धि वाले को नुकसान नहीं है, बोझ नहीं है। सेवा का फायदा कम है लेकिन नुकसान तो नहीं कहेंगे ना। मिक्सचर बुद्धि में तो नुकसान है, इसलिए यह वर्ष भी तपस्या का करेंगे? सेवा में तो कहते हो कि नीचे आ जाते हैं, तो क्या करेंगे? सिर्फ तपस्या करेंगे।

जब स्वयं सम्पन्न बनो तब विश्व परिवर्तन का कार्य भी सम्पन्न होगा। आप सबके सम्पन्नता की कमी के कारण विश्व परिवर्तन का कार्य सम्पन्न होने में रूका हुआ है। प्रकृति दासी बन आपकी सेवा के लिए इन्तज़ार कर रही है कि ब्राह्मण आत्माएं ब्राह्मण सो फरिश्ता और फिर फरिश्ता सो देवता बनें तो हम दिल व जान, सिक व प्रेम से सेवा करें क्योंकि सिवाए फरिश्ता बने देवता नहीं बन सकते। ब्राह्मण से फरिश्ता बनना ही पड़े और फरिश्ता का अर्थ ही है जिसका पुरानी दुनिया, पुराने संस्कार, पुरानी देह के प्रति कोई आकर्षण का रिश्ता नहीं। तीनों में पास चाहिए। तीनों से मुक्त।

होली हँस - फरिश्ता स्वरुप , Holi swan - Angel Form
होली हँस – फरिश्ता स्वरुप , Holi swan – Angel Form

वैसे भी ड्रामा में पहले मुक्ति का वर्सा है फिर जीवन-मुक्ति का। वाया मुक्ति धाम के आप जीवन-मुक्ति में नहीं जा सकते। तो फरिश्ता अर्थात् मुक्त और मुक्त फरिश्ता सो जीवन-मुक्त देवता बनेगा। तो कितने परसेन्ट फरिश्ते बने हो? कि ब्राह्मण बनने में ही खुश हो? फरिश्ता बनना अर्थात् अव्यक्त फरिश्ता स्वरूप ब्रह्मा बाप से प्यार हो। जिसका फरिश्ता स्थिति से प्यार नहीं तो ब्रह्मा बाप नहीं मानता है कि मेरे से प्यार है। प्यार का अर्थ ही है समान बनना। ब्रह्मा बाप फरिश्ता है ना! फरिश्ता बन आप सबको फरिश्ता बनाने के लिए फरिश्तों की दुनिया में रूके हुए हैं। सिर्फ मुख से नहीं कहो कि बाप से बहुत प्यार है, क्या वर्णन करें। लेकिन ब्रह्मा बाप सिर्फ कहने से खुश नहीं होते, बनने से होते हैं।

कहने वाले तो भक्त भी बहुत हैं। कितने प्यार के गीत गाते है। इतने प्यार के गीत गाते हैं जो अनेकों को हँसा भी देवे तो रूला भी देवे। वह सब है कहने वाले और आप हो बनने वाले। अगर सिर्फ कहते रहते हैं तो समझो अभी भक्ति का अंश रहा हुआ है। ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा नहीं कहेंगे, लेकिन भक्त योगी आत्मा कहेंगे। अब क्या करेंगे? कोई नवीनता दिखायेंगे या जैसे इस वर्ष किया वहीं करेंगे? ऐसा भी समय आयेगा जो बापदादा उन्हों से ही मिलेंगे जो करने वाले हैं, जो बनने वाले हैं, सिर्फ कहने वाले नहीं। अभी तो सभी को एलाउ कर देते हैं, भावना वाले भी आ जाओ, ज्ञानी योगी तू आत्मा भी आ जाओ, लेकिन समय परिवर्तन होना ही है इसलिए अपने ऊपर और दस गुना अण्डरलाइन करके परिवर्तित होकर दिखाओ। फिर बापदादा को उलहना नहीं देना कि ऐसे कैसे होगा, ऐसे क्यों किया।

आप पुरुषार्थ में स्ट्रिक्ट नहीं होते हो तो बाप को स्ट्रीक्ट होना ही पड़ेगा। अभी तो बाप के प्यार स्वरूप से चल रहे हो, पल रहे हो। लेकिन सतगुरू का रूप धर्मराज नहीं। सतगुरू की आज्ञा सिरमाथे गाया हुआ है। अभी तो बापदादा मीठे बच्चे, प्यारे बच्चे कहकरके चला रहे हैं। अगर प्यार है, मिलन की प्यास है, तो समान बनकर मिलो। महान अन्तर में नहीं मिलो। समान बनकर मिलन में बहुत मज़ा है। ये मज़ा और है। अच्छा बाप से मिल लिया, दृष्टि ले लिया, वहाँ गये तो फिर कोई कमजोरी आ गई, शक्ति मिली और काम में लाई, एक दो बार विजयी बने, फिर कमजोर बन गये। तो यह अपने प्रकार का मिलना है। लेकिन यथार्थ प्यार, यथार्थ मिलन इससे बहुत ऊंचा है। बहुत बहुत प्यारा है – उसका अनुभव करो। समझा!

सतगुरू की कोई ने आज्ञा नहीं मानी तो सतगुरू है ना। बाप के आगे तो बच्चों के नाज़, लाड-कोड़ चलते हैं। अगर बाप से सच्चा प्यार है तो इस वर्ष में फरिश्ता समान बनकर दिखाओ। अभी इतने सब मिलने के लिए आये हैं, बहुत अच्छा है लेकिन और अच्छे ते अच्छा करना है। प्यार करना और प्यार निभाना, उसमें अन्तर है। करने वाले सभी हो। अगर प्यार नहीं होता तो इतने सब क्यों आते। लेकिन करना और निभाना इसमें अन्तर हो जाता है। प्यार करने वाले अनेक होते हैं और निभाने वाले कितने होते हैं। तो आप निभाने वाले हो? निभाने वाले फिर चाहिए चाहिए नहीं कहेंगे। प्रैक्टिकल है सिर्फ मुख से नहीं।

सुनाया ना कि तपस्या के चार्ट में भी अपने को मार्क्स, सर्टीफिकेट देने वाले बहुत हैं, लेकिन सर्व के सन्तुष्टता का सर्टीफिकेट कोई कोई को प्राप्त होता है। चार्ट रखने वाले भी बहुत निकले। अपने को अच्छे ते अच्छा सर्टीफिकेट देने वाले भी बहुत निकले। बहुत नहीं है लेकिन कुछ हैं। सेकेण्ड नम्बर वाले बहुत हैं। लेकिन सबके मुख से यह निकले कि हाँ, यह नम्बरवन है। सबके दिल से यह दुआओं का सर्टीफिकेट मिले इसको कहेंगे नम्बरवन।

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कई बच्चे कहते हैं कि हम तो ठीक हैं, लेकिन कोई कोई आत्मा का कोई कड़ा हिसाब है हमारे से, जो कितना भी उसको सन्तुष्ट करते लेकिन वह सन्तुष्ट नहीं होता। बाप-दादा ने पहले भी कहा था कि अगर ऐसा कोई कड़ा हिसाब-किताब है भी तो भी कम से कम 95 प्रतिशत सर्टीफिकेट मिलने चाहिए। 5 प्रतिशत का कड़ा हिसाब-किताब है, वह भी माफ है। लेकिन 95 प्रतिशत दिल से दुआएं दें। कई ऐसे कहते हैं कि सबसे सन्तुष्ट कौन हैं? ऐसा तो एक भी दिखाई नहीं देता।

बड़ों के लिए भी सोचते हैं कि इनसे ही नाराज है तो हमसे हुए तो क्या बड़ी बात है। लेकिन उन्हों से 95 प्रतिशत दिल से राजी हैं। बड़ों की बात दूसरी है। बड़ों को जज बनना पड़ता है। तो दो में से एक की बात हाँ करेंगे वह कहेंगे बहुत अच्छे, और जिसको ना करेंगे वह कहेंगे ये भी अच्छे नहीं हैं। तो जज एक को हाँ करेगा या दोनों को? तो वह बातें अलग बात हैं। लेकिन दिल की तपस्या, दिल का प्यार, निमित्त भाव, शुभ भाव वो सर्टीफिकेट सामने देखो। यह नहीं कॉपी करो कि बड़ों से भी सन्तुष्ट नहीं हैं हम तो पास हो जायेंगे। ऐसे नहीं सोचो। 95 प्रतिशत अगर सन्तुष्ट हैं तो नम्बर मिल जायेगा। समझा! अच्छा।

“चारों ओर के आदि पिता के आदि रचना, डायरेक्ट रचना, श्रेष्ठ आत्माएं, सर्व जीवनमुक्त का वर्सा अनेक जन्म प्राप्त करने वाली आत्माएं, सर्व ब्राह्मण सो फरिश्ता, फरिश्ता सो देव आत्मा बनने वाली अधिकारी आत्माएं, सदा प्लेन बुद्धि बन सेवा के प्लैन में सफलता प्राप्त करने वाली आत्माएं, बाप से सच्चा स्नेह सच्चा प्यार निभाने वाली सर्व समीप आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।“

वरदान:-     कन्ट्रोलिंग पावर द्वारा तूफान को भी तोहफा बनाने वाले यथार्थ योगी भव!

यथार्थ वा सच्चा योगी वह है जो अपनी बुद्धि को एक सेकण्ड में जहाँ और जब लगाना चाहे वहाँ लगा सके। परिस्थिति हलचल की हो, वायुमण्डल तमोगुणी हो, माया अपना बनाने का प्रयत्न कर रही हो फिर भी सेकण्ड में एकाग्र हो जाना – यह है याद की शक्ति। कितना भी व्यर्थ संकल्पों का तूफान हो लेकिन सेकण्ड में तूफान आगे बढ़ने का तोहफा बन जाए-ऐसी कन्ट्रोलिंग पावर हो। ऐसी शक्तिशाली आत्मा कभी ये संकल्प नहीं लायेगी कि चाहते तो नहीं हैं लेकिन हो जाता है।

स्लोगन:-    “योगयुक्त और युक्तियुक्त कर्म करने वाले ही विघ्न प्रूफ बन सकते हैं।“ – ओम् शान्ति।

मधुबन मुरली:- सुनने के लिए Video को सेलेक्ट करे।
मधुबन मुरली:- सुनने के लिए Video को सेलेक्ट करे।
रूहानी गीत: अन्य गीत सुनने के लिए सेलेक्ट करे > “PARMATMA LOVE SONGS”.

किर्प्या अपना अनुभव साँझा करे

अच्छा – ओम् शान्ति।

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