4-11-2022 “अव्यक्त-बापदादा” मधुबन प्रात: मुरली : “बाप का फरमान है स्वदर्शन चक्र फिराते अपना बुद्धियोग एक बाप से लगाओ”
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शिव भगवानुवाच : “मीठे बच्चे – बाप का फरमान है स्वदर्शन चक्र फिराते अपना बुद्धियोग एक बाप से लगाओ, इससे विकर्म विनाश होंगे, सिर से पापों का बोझा उतर जायेगा”
प्रश्नः– इस पुरुषोत्तम संगमयुग की विशेषतायें कौन-कौन सी हैं?
उत्तर:- 1- यह संगमयुग ही कल्याणकारी युग है – इसमें ही आत्मा और परमात्मा का सच्चा मेला लगता है जिसे कुम्भ का मेला कहते हैं।
2- इस समय ही तुम सच्चे-सच्चे ब्राह्मण बनते हो।
3- इस संगम पर तुम दु:खधाम से सुखधाम में जाते हो। दु:खों से छूटते हो।
4- इस समय तुम्हें ज्ञान सागर बाप द्वारा सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त का पूरा ज्ञान मिलता है। नई दुनिया के लिए नया ज्ञान बाप देते हैं।
5- तुम सांवरे से गोरा बनते हो।
गीत:- “इस पाप की दुनिया से…………….”, अन्य गीत सुनने के लिए सेलेक्ट करे > “PARAMATMA LOVE SONGS”.
-: ज्ञान के सागर और पतित-पावन निराकार शिव भगवानुवाच :-
अपने रथ प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा सर्व ब्राह्मण कुल भूषण ब्रह्मा मुख वंशावली ब्रह्माकुमार कुमारियों प्रति – “मुरली”( यह अपने सब बच्चों के लिए “स्वयं भगवान द्वारा अपने हाथो से लिखे पत्र हैं।”)
“ओम् शान्ति”
शिव भगवानुवाच : मीठे-मीठे बच्चों ने गीत सुना और बच्चों की बुद्धि में यह बैठा हुआ है कि बरोबर कलियुग पाप की दुनिया है। इस समय सब पाप ही करते रहते हैं। बाप आकर तुम बच्चों को कल्प-कल्प गति सद्गति देते हैं, जब पतित दुनिया को पावन बनाना होता है तब पतित-पावन बाप आते हैं, आकर बच्चों को आप समान बनाते हैं।
बाप में कौन सा ज्ञान है? सारे सृष्टि चक्र का ज्ञान है। तुम बच्चे भी इस सृष्टि चक्र को जानते हो। यह सारा चक्र कैसे फिरता है, यह बाप में ज्ञान है, इसलिए उनको ज्ञान का सागर कहा जाता है। वही पतित-पावन है। इस चक्र को समझने से, स्वदर्शन चक्रधारी बनने से तुम फिर स्वर्ग के चक्रवर्ती राजा रानी बनते हो। तो बुद्धि में सारा दिन यह चक्र फिरना चहिए तो तुम्हारे विकर्म विनाश हो जायेंगे।
फिर सतयुग में तो तुम यह चक्र नहीं फिरायेंगे। वहाँ स्व अर्थात् आत्मा को सृष्टि चक्र का ज्ञान नहीं होता। न सतयुग में, न कलियुग में, यह ज्ञान सिर्फ संगमयुग पर तुमको मिलता है। संगम की बहुत महिमा है। कुम्भ का मेला करते हैं ना। वास्तव में यह है ज्ञान सागर और नदियों का मेला अर्थात् परम आत्मा और आत्माओं का मेला। वह कुम्भ का मेला भक्ति मार्ग का है। यह आत्मा और परमात्मा का मेला इस सुहावने कल्याणकारी संगमयुग पर ही होता है, जबकि तुम दु:खों से छूट सुख में जाते हो इसलिए बाप को दु:ख हर्ता सुख कर्ता कहा जाता है।
आधाकल्प सुख और आधाकल्प दु:ख चलता है। दिन और रात आधा-आधा है। मकान भी नया पुराना होता है। नये घर में सुख, पुराने घर में दु:ख होता है। दुनिया भी नई और पुरानी होती है। आधाकल्प सुख रहता है फिर मध्य से दु:ख शुरू होता है। दु:ख के बाद फिर सुख होता है। दु:खधाम से फिर सुखधाम कैसे बनता है, कौन बनाते हैं। यह दुनिया भर में कोई नहीं जानते। मनुष्य तो घोर अन्धियारे में हैं।
सतयुग को बहुत लम्बा समय दे दिया है। अगर सतयुग की आयु बड़ी हो तो आदमी कितने होने चाहिए। वापिस तो कोई भी जा नहीं सकते। सबको इक्ट्ठा होना ही है। वापिस तो तब जायें जब बाप आकर घर का रास्ता बताये। इतनी सब आत्माओं को बाप संगमयुग पर आकर पूरा रास्ता बताते हैं, तुम जानते हो हम 84 जन्मों का चक्र लगाकर आये हैं।
सतयुग, त्रेता में हमने कितने जन्म लिये हैं, वहाँ कितने वर्ष कौन-कौन राज्य करते हैं। सारा तुम्हारी बुद्धि में है। सतयुग में हैं 16 कला सम्पूर्ण, फिर 14 कला फिर उतरती कला होती है। इस समय बहुत दु:ख है। दु:ख होता ही है पुरानी दुनिया में। सतयुग को नई दुनिया, कलियुग को पुरानी दुनिया कहा जाता है। अभी है संगम। अब पुरानी दुनिया का विनाश होता है, बाप नई दुनिया बना रहे हैं। तुम पुरानी दुनिया से निकल जाए नये घर में बैठेंगे। तुम कहेंगे हम नये घर के लिए पुरुषार्थ कर रहे हैं कि हम नई दुनिया में ऊंच पद पायें।
बाप सिर्फ कहते हैं मुझे याद करो और कोई तकलीफ नहीं देते। कैसे भी टाइम निकाल फरमान मानना चाहिए। परन्तु माया ऐसी है जो फरमान मानने नहीं देती। बाप से बुद्धियोग लगाने नहीं देती। परन्तु तुम बच्चों ने कल्प पहले भी पुरुषार्थ कर इस माया रूपी रावण पर जीत पाई है तब तो सतयुग की स्थापना होती है। जितना जो मददगार बनता है उनको उतना इज़ाफा भी मिलता है। तो बच्चों को यह नॉलेज मित्र सम्बन्धियों को भी देनी है।
बाप का फरमान है कि मुझे याद करो क्योंकि आधाकल्प के विकर्मो का बोझा सिर पर है, उनको भस्म करने का कोई उपाय नहीं सिवाए याद के। भल गंगा जमुना को पतित-पावनी कहते हैं, समझते हैं हम पावन हो जायेंगे परन्तु पानी से पाप कैसे कटेंगे। यह है पतित दुनिया तब सब पुकारते हैं हे पतित-पावन आकर सतयुग की स्थापना करो। सो तो सिवाए बाप के कोई स्थापन कर न सके। तो यह है नई दुनिया के लिए नया ज्ञान। देने वाला एक ही बाप है, श्रीकृष्ण ने ज्ञान नहीं दिया, श्रीकृष्ण को पतित-पावन नहीं कहा जाता। पतित-पावन तो एक ही परमपिता परमात्मा है, जो पुनर्जन्म रहित है।
तुम जानते हो- श्रीकृष्णपुरी को ही विष्णुपुरी कहा जाता है। श्रीकृष्ण की राजधानी अपनी, राधे की राजधानी अपनी फिर उन्हों की आपस में सगाई होती है। राधे कृष्ण कोई भाई बहन नहीं थे। भाई बहन की आपस में शादी नहीं होती। अब तुम्हारी बुद्धि में यह बातें टपकती रहती हैं। पहले यह नहीं जानते थे। अब मालूम पड़ा है कि राधे-कृष्ण ही फिर लक्ष्मी-नारायण बनते हैं। स्वर्ग के महाराजा और महारानी, प्रिन्स और प्रिन्सेज राधे कृष्ण गाये हुए हैं।
उन्हों के माँ बाप का इतना उंचा मर्तबा नहीं है। यह क्यों हुआ? क्योंकि उन्हों के माँ बाप कम पढ़े हुए हैं। राधे कृष्ण का जितना नाम है, उन्हों के माँ बाप का तो जैसे नाम है नहीं। वास्तव में जिसने जन्म दिया उन्हों का नाम बहुत होना चाहिए। परन्तु नहीं, राधे कृष्ण सबसे ऊंच हैं। उन्हों के ऊपर तो कोई है नहीं। राधे कृष्ण पहले नम्बर में गये हैं फिर पहले नम्बर में महाराजा महारानी भी बने हैं। भल जन्म माँ बाप से लिया है परन्तु नाम उन्हों का ऊंचा है।
यह बुद्धि में अच्छी तरह बिठाना है। जबकि तुम यहाँ बैठे हो तो यह स्वदर्शन चक्र फिराते रहो। इस चक्र फिराने से तुम्हारे पाप भस्म होते हैं अर्थात् रावण का सिर कटता है। यह सतयुग, त्रेता… का चक्र है ना। हम पहले सो देवता थे फिर क्षत्रिय, वैश्य…. बनें। अब फिर हम ब्राह्मण बने हैं। फिर हम सो देवता बनेंगे।
बाबा ने ओम् का अर्थ अलग समझाया है, हम सो का अर्थ अलग है। शास्त्रों में एक ही कर दिया है। वह समझते हैं ओम् अर्थात् हम आत्मा सो परमात्मा। परमात्मा सो आत्मा – यह है उल्टा। बाप समझाते हैं ओम् अर्थात् हम आत्मा हैं, परमपिता परमात्मा की सन्तान हैं। मैं भगवान, यह कोई ओम् का अर्थ नहीं है। हम आत्मा निराकार हैं। हमारा बाप भी निराकार है। साकार शरीर का बाप भी साकार है। हम परमात्मा की सन्तान हैं तो हमको स्वर्ग की राजधानी जरूर चाहिए। बाप हमको स्वर्ग का वर्सा देने आये हैं।
रावण फिर आधाकल्प के बाद श्राप देते हैं तो तुम दु:खी तमोप्रधान बन जाते हो। फिर बाप आकर सुखी बनने का वर देते हैं। ऐसे नहीं कहते चिरन्जीवी भव। परन्तु कहते हैं मुझे याद करो तो इस जन्म सहित जो भी जन्म जन्मान्तर के पाप हैं वह भस्म हो जायेंगे, इसको योग अग्नि कहा जाता है। रावणराज्य में सबको पतित जरूर बनना है। पतित और पावन आत्मा बनती है, परमात्मा तो सदैव पावन है, वह सबको पावन बनाते हैं। पतित बनाते हैं रावण।
सतयुग में विकार होते नहीं। वह है सम्पूर्ण निर्विकारी दुनिया, तब तो देवताओं के आगे जाकर गाते हैं – आप सर्वगुण सम्पन्न….. यह महिमा शिव के आगे नहीं गायेंगे। देवतायें जो पावन हैं सो पतित बनते हैं, यह खेल है। बाप सुखधाम बनाते हैं, शिव को बाप कहते हैं। सालिग्राम अलग हैं, रुद्र यज्ञ में एक बड़ा लिंग बनाते हैं, बाकी छोटे-छोटे सालिग्राम बनाते हैं।
हम आत्मा 84 जन्म लेते हैं, दूसरे धर्म वालों के लिए 84 जन्म नहीं कहेंगे। सिक्ख धर्म वाले 500 वर्ष में कितने जन्म लेते होंगे? हम कितने लेते हैं? यह बाप समझाते हैं, ब्राह्मणों की ही चोटी मशहूर है। सच्चे ब्राह्मण होते ही हैं संगम पर। यह कल्याणकारी युग है। यहाँ ही तुम सबका कल्याण होता है। रावण अकल्याण करते हैं, बाप आकर कल्याण करते हैं। तो बाप की मत पर चल कल्याण करना चाहिए ना।
श्रीमत शिव भगवानुवाच – शिवबाबा जन्म नहीं लेते, वह प्रवेश करते हैं। जन्म तब कहें जब पालना लेवें। वह कभी पालना नहीं लेते हैं। सिर्फ कहते हैं मेरी श्रीमत पर चलो। स्वर्ग के तुम मालिक बनो। मुझे तो बनना नहीं है, मैं तो अभोक्ता हूँ।
तो समझना चाहिए बाबा हम आत्माओं को समझा रहे हैं, आत्मा ही समझती है ना। आत्मा ही बैरिस्टर, इन्जीनियर बनती है। मैं फलाना हूँ। आत्मा ने कहा – हम देवता थे, फिर हम 8 जन्म बाद क्षत्रिय बने, फिर 12 जन्म लिये, फिर मैं पतित बनता हूँ। अब बाप कहते हैं बच्चे, आत्म-अभिमानी भव। यह समझने की बातें हैं। आत्मा कहती है हम सतयुग में थे तो महान आत्मा थे फिर कलियुग में महान पाप आत्मा हैं।
सबसे महान ते महान, महान आत्मा है एक परमात्मा, जो सदैव पवित्र है। यहाँ तो मनुष्य सदैव पवित्र रहते नहीं। सदैव पवित्र तो सुखधाम में रहते हैं। त्रेता में भी कुछ कला कम होती जाती हैं। अभी हमारी चढ़ती कला है। हम स्वर्ग के मालिक बनते हैं। फिर त्रेता में आयेंगे तो 2 कला कम हो जायेंगी फिर द्वापर में 5 विकारों का ग्रहण लगने से काले होते जाते हैं। अभी बाप कहते हैं इन 5 विकारों का दान दो तो ग्रहण उतर जाये, फिर तुम सतयुगी सम्पूर्ण देवता बन जायेंगे।
पहले-पहले देह-अभिमान छोड़ो, काम विकार का दान दो। अन्त में आकर नष्टोमोहा बनना होता है। अभी तुम आत्माओं को स्मृति आई है कि हमने बरोबर 84 जन्म भोगे हैं। द्वापर से रावण ने श्रापित किया है, इसलिए सब दु:खी हैं। क्या द्वापर के राजा रानी आदि बीमार नहीं पड़ते होंगे? यह भी दु:ख हुआ ना। यह है ही दु:ख की दुनिया, सतयुग ही है सुखधाम। तो भगवान की श्रीमत माननी चाहिए ना। बेहद के बाप की जो मत नहीं मानते उन्हें महान कपूत कहा जाता है। कपूत बच्चे को बाप से क्या वर्सा मिलेगा!
सपूत बच्चे वर्सा भी अच्छा लेते हैं। जो खुद पवित्र बन औरों को पवित्र बनाते हैं। बेहद का बाप आत्माओं को पढ़ाते हैं हे आत्मायें कानों से सुनती हो? कहते हैं हाँ बाबा हम आपकी श्रीमत पर चल जरूर श्रेष्ठ बनेंगे। ऊंच ते ऊंच भगवान है तो जरूर पद भी ऊंच ते ऊंच देंगे ना। स्वर्ग का वर्सा देते हैं आधाकल्प के लिए। लौकिक बाप से तो हद का वर्सा मिलता है, अल्पकाल का सुख। कलियुग में है काग विष्ठा समान सुख इसलिए संन्यासी घरबार छोड़ देते हैं। वह गृहस्थ धर्म को नहीं मानते हैं। गृहस्थ धर्म सतयुग में है ना।
तुम जानते हो इस पढ़ाई से हम विष्णुपुरी में जाते हैं उसके लिए परमपिता परमात्मा हमको पढ़ा रहे हैं। भक्तों को पता ही नहीं है कि भगवान कौन है, उनका कर्तव्य कौन सा है? कैसे वह पतित से पावन बनाते हैं? अभी तुम पावन बन रहे हो। दुनिया उस पतित-पावन बाप को याद कर रही है। अभी तुम संगमयुग पर खड़े हो, बाकी सब कलियुग में हैं।
वह समझते हैं कि कलियुग तो अजुन बच्चा है। तुम जानते हो कि कलियुग का अब विनाश होने पर है। अब तुम्हें सतयुग में जाना है। बाप ने तुम्हें स्मृति दिलाई है – मैं कल्प-कल्प तुमको वर्सा देता हूँ। तो वर्सा पूरा लेना चाहिए ना।
तो बाप ऐसे थोड़ेही कहते हैं कि यहाँ बैठ जाओ। भल घर गृहस्थ में रहो सिर्फ यह स्वदर्शन चक्र फिराते रहो और नष्टोमोहा हो जाओ। एक शिवबाबा दूसरा न कोई, हम जानते हैं कि अब हमारा नया सम्बन्ध जुट रहा है, तो पुराने में ममत्व नहीं रहना चाहिए। नई दुनिया, नई राजधानी से ममत्व रखना है। अब तो मौत बिल्कुल सिर पर सवार है। तैयारियाँ होती रहती हैं। सतयुग में अकाले मृत्यु होती नहीं। समय पर एक पुरानी खाल छोड़ नई ले लेते हैं। अच्छा!
“मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का याद-प्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।“
धारणा के लिए मुख्य सार :-
1) स्वदर्शन चक्र फिराते पूरा-पूरा नष्टोमोहा बनना है। मौत सिर पर है इसलिए सबसे ममत्व निकाल देना है।
2) बाप से वर्सा लेने के लिए पूरा श्रीमत पर चलना है। आत्म-अभिमानी बन सपूत बच्चा बनना है।
वरदान:- “मन और बुद्धि को सदा सेवा में बिज़ी रखने वाले निर्विघ्न सेवाधारी भव”
जो जितना सेवा का उमंग-उत्साह रखते हैं उतना निर्विघ्न रहते हैं क्योंकि सेवा में बुद्धि बिजी रहती है। खाली रहने से किसी और को आने का चांस है और बिजी रहने से सहज निर्विघ्न बन जाते हैं। मन और बुद्धि को बिजी रखने के लिए उसका टाइम-टेबल बनाओ। सेवा वा स्वयं के प्रति जो लक्ष्य रखते हो उस लक्ष्य को प्रैक्टिकल में लाने के लिए बीच-बीच में अटेन्शन जरूर चाहिए। अटेन्शन कभी टेन्शन में बदली न हो, जहाँ टेन्शन होता है वहाँ मुश्किल हो जाता है।
स्लोगन:- “सेवा से जो दुआयें मिलती हैं – वही तन्दरूस्त रहने का साधन हैं।“ – ओम् शान्ति।
मधुबन मुरली:- सुनने के लिए Video को सेलेक्ट करे।
अच्छा – ओम् शान्ति।
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नोट: यदि आप “मुरली = भगवान के बोल” को समझने में सक्षम नहीं हैं, तो कृपया अपने शहर या देश में अपने निकटतम ब्रह्मकुमारी राजयोग केंद्र पर जाएँ और परिचयात्मक “07 दिनों की कक्षा का फाउंडेशन कोर्स” (प्रतिदिन 01 घंटे के लिए आयोजित) पूरा करें।
खोज करो: “ब्रह्मा कुमारिस ईश्वरीय विश्वविद्यालय राजयोग सेंटर” मेरे आस पास.
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