30-10-2022 -”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन मुरली. रिवाइज: 21-11-1992: “कर्मों की गुह्य गति के ज्ञाता बनो”
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शिव भगवानुवाच: “कर्मों की गुह्य गति के ज्ञाता बनो”
गीत:- “झरनो से संगीत है झरता..”.
“ओम् शान्ति”
शिव भगवानुवाच : – आज सर्व खजानों के देने वाले बाप सर्व बच्चों के जमा का खाता देख रहे थे। खजाने तो सर्व बच्चों को अखुट मिले हैं और सर्व को एक जैसा, एक द्वारा सर्व खजाने मिले हैं। एक खजाना नहीं लेकिन अनेक खजाने प्राप्त हुए हैं। फिर भी जमा का खाता हर एक का अलग-अलग है। कोई ने सर्व खजाने अच्छी रीति जमा किये हैं और कइयों ने यथा शक्ति जमा किया है। और जितना जमा किया है उतना ही चलन और चेहरे में वह रूहानी नशा दिखाई देता है,
जमा करने का रूहानी फखुर अनुभव होता है। रूहानी फखुर की पहली निशानी यही है कि जितना फखुर है उतना बेफिक्र बादशाह की झलक उनके हर कर्म में दिखाई देती है क्योंकि जहाँ रूहानी फखुर है वहाँ कोई फिक्र नहीं रह सकता। यह फखुर और फिक्र दोनों एक समय, एक साथ नहीं रह सकते हैं। जैसे रोशनी और अंधकार साथ नहीं रह सकते हैं।
बेफिक्र बादशाह की विशेषता वह सदा प्रश्नचित्त के बजाए प्रसन्नचित्त रहते हैं। हर कर्म में स्व के सम्बन्ध में वा सर्व के सम्बन्ध में वा प्रकृति के भी सम्बन्ध में किसी भी समय, किसी भी बात में संकल्प-मात्र भी क्वेश्चन मार्क नहीं होगा कि ‘यह ऐसा क्यों’ वा ‘यह क्या हो रहा है’, ‘ऐसा भी होता है क्या’? प्रसन्नचित्त आत्मा के संकल्प में हर कर्म को करते, देखते, सुनते, सोचते यही रहता है कि जो हो रहा है वह मेरे लिए अच्छा है और सदा अच्छा ही होना है। प्रश्नचित्त आत्मा ‘क्या’, ‘क्यों’, ‘ऐसा’, ‘वैसा’ इस उलझन में स्वयं को बेफिक्र से फिक्र में ले आती है। और बेफिक्र आत्मा बुराई को भी अच्छाई में परिवर्तन कर लेती, इसलिए वह सदा प्रसन्न रहती।
आजकल के साइन्स के साधन से भी जो वेस्ट-खराब माल होता है, उसको परिवर्तन कर अच्छी चीज़ बना देते हैं। तो प्रसन्नचित्त आत्मा साइलेन्स की शक्ति से चाहे बात बुरी हो, सम्बन्ध बुरे अनुभव होते हों, लेकिन वह बुराई को अच्छाई में परिवर्तन कर स्वयं में भी धारण करेगी और दूसरे को भी अपनी शुभ भावना के श्रेष्ठ संकल्प से बुराई को बदल अच्छाई धारण करने की शक्ति देगी।
कई बच्चे सोचते हैं, कहते हैं कि “जब है ही बुरी वा ग़लत बात, तो ग़लत को ग़लत तो कहना ही पड़ेगा ना! वा ग़लत को ग़लत तो समझना ही पड़ेगा ना!” लेकिन ग़लत को ग़लत समझना यह समझने के हिसाब से समझा। वह राइट और रांग समझना, जानना अलग बात है लेकिन नॉलेजफुल रूप से जानने वाले समझने के बाद स्वयं में किसी भी आत्मा की बुराई को बुराई के रूप में अपनी बुद्धि में धारण नहीं करेंगे।
तो समझना अलग चीज है, समझने तक राइट है। लेकिन स्वयं में वा अपने चित पर, अपनी बुद्धि में, अपनी वृत्ति में, अपनी वाणी में दूसरे की बुराई को बुराई के रूप में धारण नहीं करना है, समाना नहीं है। तो समझना और धारण करना इसमें अन्तर है।
अपने को बचाने के लिए यह कह देते हैं कि यह है ही रांग, रांग को तो रांग कहना पड़ेगा ना। लेकिन समझदार का काम क्या होता है? समझदार अगर समझता है कि यह बुरी चीज़ है, तो क्या बुरी समझते हुए अपने पास जमा करेगा? अपने पास अच्छी रीति सम्भाल कर रखेगा? छोड़ देगा ना। या जमा करना ही समझदारी है? यह समझदारी है? और सोचो, अगर बुरी बात वा बुरी चलन को स्वयं में धारण कर लिया, तो क्या आपकी बुद्धि, वृत्ति, वाणी सदा सम्पूर्ण स्वच्छ मानी जायेगी? अगर जरा भी कोई डिफेक्ट वा दाग रह जाता है, किचड़ा रह जाता है तो डिफेक्ट वाला कभी परफेक्ट नहीं कहला सकता, प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता।
अगर कोई की बुराई चित्त पर है, तो उसका चित्त सदा प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता और चित्त पर धारण की हुई बातें वाणी में जरूर आयेंगी, चाहे एक के आगे वर्णन करे, चाहे अनेक के आगे वर्णन करे। लेकिन कर्मों की गति का गुह्य रहस्य सदा सामने रखो। अगर किसी की भी बुराई वा ग़लत बात चित्त पर रखने के साथ वर्णन करते हो, तो यह व्यर्थ वर्णन ऐसा ही है जैसे कोई गुम्बज़ में आवाज़ करता है तो वह अपना ही आवाज़ और ही बड़े रूप में बदल अपने पास ही आता है। गुम्बज़ में आवाज करके देखा है? तो अगर किसी की बुराई करने के, ग़लत को ग़लत फैलाने के संस्कार हैं, जिसको आप लोग आदत कहते हो, तो आज आप किसकी ग्लानि करते हो और अपने को बड़ा समझदार, गलती से दूर समझकर वर्णन करते हो,
लेकिन यह पक्का नियम है अथवा कर्मों की फिलॉसफी है कि आज आपने किसकी ग्लानि की और कल आपकी कोई दुगुनी ग्लानि करेगा क्योंकि यह ग़लत बातें इतनी फास्ट गति से फैलती हैं जैसे कोई विशेष बीमारी के जर्म्स (जीवाणु) बहुत जल्दी फैलते हैं और फैलते हुए जर्म्स जिसकी ग्लानि की वहाँ तक पहुँचते जरूर हैं। आपने एक ग्लानि की होगी और वह आपको ग़लत सिद्ध करने के लिए आपकी दस ग्लानि करेंगे। तो रिजल्ट क्या हुई? कर्मों की गति क्या हुई? लौट कर कहाँ आई? अगर आपको शुभ भावना है उस आत्मा को ठीक करने की, तो ग़लत बात शुभ भावना के स्वरूप में विशेष निमित्त स्थान पर दे सकते हो, फैलाना रांग है।
कई कहते हैं हमने किसको कहा नहीं, लेकिन वो कह रहे थे तो मैंने भी हाँ में हाँ कर दिया, बोला नहीं। आपके भक्ति-मार्ग के शास्त्रों में भी वर्णन है कि बुरा काम किया नहीं लेकिन देखा भी, साथ भी दिया तो वह पाप है। ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाना, यह भी कर्मों की गति के प्रमाण पाप में भागी बनना है।
वर्तमान समय कर्मों की गति के ज्ञान में बहुत इज़ी हो गये हैं। लेकिन यह छोटे-छोटे सूक्ष्म पाप श्रेष्ठ सम्पूर्ण स्थिति में विघ्न रूप बनते हैं। इज़ी बनने की निशानियां क्या हैं? वह सदा ऐसा ही सोचते-समझते कि यह तो और भी करते हैं, यह तो आजकल चलता ही है। या तो अपने आपको हल्का करने के लिए यही कहेंगे कि मैंने हंसी में कहा, मेरा भाव नहीं था, ऐसे ही बोल दिया। यह विधि सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त होने में सूक्ष्म विघ्न बन जाता है
इसलिए ज्ञान तो बहुत मिल गया है, रचता और रचना के ज्ञान को सुनना, वर्णन करना बहुत स्पष्ट हो गया है। लेकिन कर्मों की गुह्य गति का ज्ञान बुद्धि में सदा स्पष्ट नहीं रहता, इसलिए इज़ी हो जाते हैं। कई बच्चों की अपने प्रति भी कम्प्लेन होती है कि जैसे बाप कहते हैं, बाप बच्चों में जो श्रेष्ठ आशाएं रखते हैं, जो चाहते हैं, जितना चाहते हैं उतना नहीं है। इसका कारण क्या है? ये अति सूक्ष्म व्यर्थ कर्म बुद्धि को, मन को ऊंचा अनुभव करने नहीं देते। योग लगाने बैठते हैं लेकिन काफी समय युद्ध में चला जाता, व्यर्थ को मिटाए समर्थ बनने में समय चला जाता है इसलिए क्या करना चाहिए? जितना ऊंचा बनते हैं, तो ऊंचाई में अटेन्शन भी ऊंचा रखना पड़ता है।
ब्राह्मण जीवन की मौज में रहना है। मौज में रहने का अर्थ यह नहीं कि जो आया वह किया, मस्त रहा। यह अल्पकाल के सुख की मौज वा अल्पकाल के सम्बन्ध-सम्पर्क की मौज सदाकाल की प्रसन्नचित्त स्थिति से भिन्न है। इसी को मौज नहीं समझना। जो आया वह बोला, जो आया वह किया हम तो मौज में रहते हैं। अल्पकाल के मनमौजी नहीं बनो। सदाकाल की रूहानी मौज में रहो। यही यथार्थ ब्राह्मण जीवन है। मौज में भी रहो और कर्मों की गति के ज्ञाता भी रहो। तब ही जो चाहते हो, जैसे चाहते हो वैसे अनुभव करते रहेंगे। समझा? कर्मों की गुह्य गति के ज्ञाता बनो। फिर खजानों के जमा की रिजल्ट सुनायेंगे। अच्छा!
“चारों ओर के फिक्र से फारिग बेफिक्र बादशाह आत्माओं को, सदा प्रसन्नचित्त विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं प्रति और सर्व आत्माओं प्रति श्रेष्ठ परिवर्तन शक्ति को कर्म में लाने वाले कर्मयोगी आत्माओं को, सदा रचता-रचना के ज्ञाता और कर्म-फिलॉसफी के भी ज्ञाता – ऐसे ज्ञान-स्वरूप आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।“
दादियों के साथ मुलाकात : –
वर्तमान समय किस बात की आवश्यकता है? कर्मों की गुह्य गति का ज्ञान मर्ज हो गया है, इसलिए अलबेलापन है। पुरुषार्थी भी हैं लेकिन पुरुषार्थ में अलबेलापन आ जाता है इसलिए अभी इसकी आवश्यकता है। बापदादा सभी की रिजल्ट को देखते हैं। जो चल रहा है वो अच्छा है। लेकिन अभी अच्छे ते अच्छा बनना ही है। बिज़ी रहना पड़ता है ना।
ज्यादा समय बिजी किसमें रहना पड़ता है? किस बात में ज्यादा समय देना पड़ता है? चाहे आप लोगों की अपनी स्थिति न्यारी और प्यारी है, लेकिन समय तो देना पड़ता है। तो यही समय पॉवरफुल शक्तिशाली लाइट हाउस, माइट हाउस बन वायब्रेशन्स फैलाने में जाये तो क्या हो जायेगा? संगठित रूप में यही वातावरण हो, और कोई बात ही नहीं हो तो वायब्रेशन विश्व में या प्रकृति तक पहुँचेगा.
अभी तो सभी लोग इन्तजार कर रहे हैं कि कब हमारे रचता वा मास्टर रचता सम्पन्न या सम्पूर्ण बन हम लोगों से अपनी स्वागत कराते। प्रकृति भी तो स्वागत करेगी ना। तो वह सफलता की माला से स्वागत करे वो दिन आना ही है। जब सफलता के बाजे बजेंगे तब प्रत्यक्षता के बाजे बजेंगे। बजने तो हैं ही ना। अच्छा!
दादी चन्द्रमणि जी सेवा पर जाने की छुट्टी ले रही हैं:-
आलराउन्ड बनना ही श्रेष्ठ सेवा है। अच्छा है, चक्कर लगाते रहो। चक्कर लगाने का पार्ट बच्चों का ही है। बाप तो अव्यक्त रूप में लगा सकते हैं। साकार रूप में भी चक्कर लगाने का पार्ट बाप का नहीं रहा, बच्चों का ही था। अच्छा!
अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात :- “विजयी माला में आने के लिये तीव्र पुरुषार्थी बनो”
सदा तीव्र पुरुषार्थी आत्माएं हैं ऐसे अनुभव करते हो? जब ब्राह्मण बने तो पुरुषार्थी तो हैं ही। तीव्र पुरुषार्थी हैं वा सिर्फ पुरुषार्थी हैं? सुनने और सुनाने वाले को पुरुषार्थी कहेंगे या तीव्र पुरुषार्थी कहेंगे? सुनना और सुनाना, उसके बाद क्या होता है? तीव्र पुरुषार्थी किसको कहेंगे – सुनने वाले को या बनने वाले को? जो माला का 16108वाँ नम्बर है वह भी सुनता और सुनाता तो है ही। नहीं तो माला में कैसे आयेगा।
लेकिन 108 की माला में कौन आयेंगे? 108 की माला का नाम है विजयी माला। 16000 वाली माला का नाम विजयी माला नहीं है। तो सुनना और सुनाना, यह मैजारिटी करते हैं। लेकिन सुना और बना इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र पुरुषार्थी 108 हैं और पुरुषार्थी 16108 हैं। तो अपने आपको चेक करो कि तीव्र पुरुषार्थी हैं या पुरुषार्थी हैं? जो हैं, जैसा हैं वह मैजारिटी अपने आपको जान सकते हैं। कोई थोड़े ऐसे हैं जो अपने को नहीं भी जानते हैं, रांग को राईट समझकर भी चलते जाते हैं। मैजारिटी अपने मन में अपने आपको सत्य जानते हैं कि मैं कौन हूँ? इसलिए सदा अपने को देखो, दूसरे को नहीं।
अपने पुरुषार्थ को चेक करो और तीव्र पुरुषार्थ में चेंज करो। नहीं तो फाइनल समय आने पर चेंज नहीं कर सकेंगे। उस समय पढ़ाई का समय समाप्त होने पर, इम्तहान के समय पढ़ाई का चांस नहीं मिलता। अगर कोई स्टूडेन्ट समझे – एक प्रश्न का उत्तर नहीं आता है, किताब से पढ़कर उत्तर दे दें तो राइट होगा या रांग होगा? तो उस समय अपने को चेंज नहीं कर सकेंगे। जो है, जैसा है, वैसे ही प्रालब्ध प्राप्त कर लेंगे। लेकिन अभी चांस है। अभी टू लेट का बोर्ड नहीं लगा है, लेट का लगा है। लेट हो गये लेकिन टू लेट नहीं इसलिए फिर भी मार्जिन है।
कई स्टूडेन्ट 6 मास में भी पास विद् ऑनर हो जाते हैं अगर सही पुरुषार्थ करते हैं तो। लेकिन समय समाप्त होने के बाद कुछ नहीं कर सकते। बाप भी रहम करना चाहे तो भी नहीं कर सकते। चलो, यह अच्छा है, इसको मार्क्स दे दो यह बाप कर सकता है? इसलिए अभी से चेक करो और चेंज करो।
अलबेलापन छोड़ दो। ठीक हैं, चल रहे हैं, पहुँच जायेंगे यह अलबेलापन है। अलबेले को इस समय तो मौज लगती है। जो अलबेला होता है उसे कोई फिक्र नहीं होता है, वह आराम को ही सबकुछ समझता है। तो अलबेलापन नहीं रखना। सदा अलर्ट! पाण्डव सेना हो ना। सेना अलबेली रहती है या अलर्ट रहती है? सेना माना अलर्ट, सावधान, खबरदार रहने वाले। अलबेला रहने वाले को सेना का सैनिक नहीं कहा जायेगा।
तो अलबेलापन नहीं, अटेन्शन! लेकिन अटेन्शन भी नेचुरल विधि बन जाये। कई अटेन्शन का भी टेन्शन रखते हैं। टेन्शन की लाइफ सदा तो नहीं चल सकती। टेन्शन की लाइफ थोड़ा समय चलेगी, नेचुरल नहीं चलेगी। तो अटेन्शन रखना है लेकिन ‘नेचुरल अटेन्शन’ आदत बन जाये। जैसे विस्मृति की आदत बन गई थी ना। नहीं चाहते भी हो जाता है। तो यह आदत बन गई ना, नेचुरल हो गई ना।
ऐसे स्मृतिस्वरूप रहने की आदत हो जाये, अटेन्शन की आदत हो जाये इसलिए कहा जाता है आदत से मनुष्यात्मा मजबूर हो जाती है। न चाहते भी हो जाता है इसको कहते हैं मजबूर। तो ऐसे तीव्र पुरुषार्थी बने हो? तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् विजयी। तभी माला में आ सकते हैं।
बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। सदैव अलर्ट माना सदा एवररेडी! आपको क्या निश्चय है विनाश के समय तक रहेंगे या पहले भी जा सकते हैं? पहले भी जा सकते हैं ना इसलिए एवररेडी। विनाश आपका इन्तजार करे, आप विनाश का इन्तजार नहीं करो। वह रचना है, आप रचता हो। सदा एवररेडी। क्या समझा? अटेन्शन रखना। जो भी कमी महसूस हो उसे बहुत जल्दी से जल्दी समाप्त करो। सम्पन्न बनना अर्थात् कमजोरी को खत्म करना। ऐसे नहीं यहाँ आये तो यहाँ के, वहाँ गये तो वहाँ के। सभी तीव्र पुरुषार्थी बनकर जाना। अच्छा!
वरदान:- “विश्व से अंधकार को मिटाकर रोशनी देने वाले मास्टर ज्ञान सूर्य भव!”
मास्टर ज्ञान सूर्य वह हैं जो विश्व से अंधकार को मिटाकर रोशनी देने वाले हैं। वह स्वयं भी प्रकाश स्वरूप, लाइट-माइट रूप हैं और दूसरों को भी लाइट-माइट देने वाले हैं। जहाँ सदा रोशनी होती है वहाँ अंधकार का सवाल ही नहीं, अंधकार हो ही नहीं सकता। जो विश्व को रोशनी देने वाले हैं वह स्वयं अंधकार में नहीं रह सकते। सम्पूर्ण पवित्रता अर्थात् रोशनी। उनके पास अंधकार अर्थात् विकारों का अंश भी नहीं रह सकता।
स्लोगन:- “स्वभाव, संस्कार, सम्बन्ध-सम्पर्क में लाइट रहना ही मिलनसार बनना है।“ – ओम् शान्ति।
मधुबन मुरली:- सुनने के लिए लिंक को सेलेक्ट करे > “Hindi Murli”
गीत:- “हम खुशनसीब इतने, प्रभु का मिला सहारा…………”, अन्य गीत सुनने के लिए सेलेक्ट करे > “PARMATMA LOVE SONGS”.
किर्प्या अपना अनुभव साँझा करे।
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