04-12-2022 -”अव्यक्त-बापदादा” मधुबन मुरली. रिवाइज: 09-1-1993: “अव्यक्त वर्ष मनाना अर्थात् सपूत बन सबूत देना”
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शिव भगवानुवाच: “अव्यक्त वर्ष मनाना अर्थात् सपूत बन सबूत देना”
गीत:- “हम तो सदा महफूज हुए हैं…”
“ओम् शान्ति”
शिव भगवानुवाच : –आज अव्यक्त बाप अपने अव्यक्तमूर्त बच्चों से मिलन मना रहे हैं। अव्यक्त अर्थात् व्यक्त भाव से न्यारे और अव्यक्त बाप समान प्यारे। सभी बच्चे विशेष इस वर्ष ऐसे बाप समान बनने का लक्ष्य रखते हुए यथा शक्ति बहुत अच्छा पुरुषार्थ कर रहे हैं। लक्ष्य के साथ लक्षण भी धारण करते चल रहे हैं। बाप–दादा सभी बच्चों का पुरुषार्थ देख हर्षित होते हैं। हर एक समझते हैं कि यही समान बनना स्नेह का सबूत है इसलिए ऐसे सबूत देने वाले बच्चों को ही सपूत बच्चे कहा जाता है। तो सपूत बच्चों को देख बाप-दादा खुश भी होते हैं और विशेष एक्स्ट्रा मदद भी देते हैं।
जितना हिम्मतवान बनते हैं उतना पद्मगुणा बाप की मदद के स्वत: ही पात्र बन जाते हैं। ऐसे पात्र बच्चों की निशानी क्या होती है? जैसे बाप के लिए गायन है कि बाप के भण्डारे सदा भरपूर हैं, ऐसे सपूत बच्चों के सदा सर्व के दिल के स्नेह की दुआओं से, सर्व के सहयोग की अनुभूतियों से, सर्व खजानों से भण्डारे भरपूर रहते हैं। किसी भी खजाने से अपने को खाली नहीं अनुभव करेंगे। सदा उन्हों के दिल से यह गीत स्वत: बजता है अप्राप्त नहीं कोई वस्तु बाप के हम बच्चों के भण्डारे में। उनकी दृष्टि से, वृत्ति से, वायब्रेशन्स से, मुख से, सम्पर्क से सदा भरपूर आत्माओं का अनुभव होता है।
ऐसे बच्चे सदा बाप के साथ भी हैं और साथी भी हैं। यह डबल अनुभव हो। स्व की लगन में सदा साथ का अनुभव करते और सेवा में सदा साथी स्थिति का अनुभव करते। यह दोनों अनुभव ‘साथी‘ और ‘साथ‘ का स्वत: ही बाप समान साक्षी अर्थात् न्यारा और प्यारा बना देता है। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा कि बाप और आप कम्बाइण्ड–रूप में सदा अनुभव किया और कराया। कम्बाइण्ड स्वरूप को कोई अलग कर नहीं सकता। ऐसे सपूत बच्चे सदा अपने को कम्बाइण्ड–रूप अनुभव करते हैं। कोई ताकत नहीं जो अलग कर सके।
जैसे सतयुग में देवताओं की प्रकृति दासी रहती है अर्थात् सदा समय प्रमाण सहयोगी रहती है, ऐसे सपूत बच्चों की श्रेष्ठ स्थिति कारण सर्व शक्तियां और सर्व गुण समय प्रमाण सदा सहयोगी रहते हैं अर्थात् सर्व शक्तियों के, गुणों के राज्य–अधिकारी रहते हैं। साथ–साथ ऐसे सपूत बच्चों का सेवा का विशेष स्वरूप क्या रहता? जैसे सभी वाणी द्वारा वा मन्सा–सेवा द्वारा सेवा करते रहते हैं, ऐसे सेवा वे भी करते हैं लेकिन उन्हों की विशेष सेवा यही है कि सदा अन्य आत्माओं को प्राप्त हुए बाप के गुणों और शक्तियों का दान नहीं लेकिन सहयोग वा प्राप्ति का अनुभव कराना। अज्ञानियों को दान देंगे और ब्राह्मण आत्माओं को सहयोग वा प्राप्ति करायेंगे क्योंकि सबसे बड़े ते बड़ा दान गुण-दान वा शक्तियों का दान है।
निर्बल को शक्तिवान बनाना यही श्रेष्ठ दान है वा सहयोग है। तो ऐसा सहयोग देना आता है? कि अभी लेने के लिए सोचते हो? अभी तक लेने वाले हो या दाता के बच्चे देने वाले बने हो? वा कभी लेते हो, कभी देते हो ऐसे? देने लग जाओ तो लेना स्वत: ही सम्पन्न हो जायेगा क्योंकि बाप ने सभी को सब–कुछ दे दिया है। कुछ अपने पास रखा नहीं है, सब दे दिया है। सिर्फ लेने वालों को सम्भालना और कार्य में लगाना नहीं आता है।
तो जितना देते जायेंगे उतना ही सम्पन्नता का अनुभव करते जायेंगे। ऐसे सपूत हो ना! ‘सपूत‘ की लाइन में हो कि सपूत बनने की लाइन में हो? जैसे लौकिक में भी माँ–बाप बच्चों को अपने हाथों पर नचाते रहते हैं अर्थात् सदा खुश रखते, उमंग–उत्साह में रखते। ऐसे सपूत बच्चे सदा सर्व को उमंग–उत्साह में नचाते रहेंगे, उड़ती कला में उड़ाते रहेंगे। तो यह वर्ष अव्यक्त वर्ष मना रहे हो। अव्यक्त वर्ष अर्थात् बाप के सपूत बन सबूत देने वाला बनना। ऐसा सबूत देना अर्थात् मनाना। अव्यक्त का अर्थ ही है व्यक्त भाव और व्यक्त भावना से परे।
जीवन में उड़ती कला वा गिरती कला का आधार दो बातें ही हैं (1) भावना और (2) भाव। अगर किसी भी कार्य में कार्य प्रति या कार्य करने वाले व्यक्ति के प्रति भावना श्रेष्ठ है, तो भावना का फल भी श्रेष्ठ स्वत: ही प्राप्त होता है। एक है सर्व प्रति कल्याण की भावना; दूसरी है कोई कैसा भी हो लेकिन सदा स्नेह और सहयोग देने की भावना; तीसरी है सदा हिम्मत–उल्लास बढ़ाने की भावना; चौथी है कोई कैसा भी हो लेकिन सदा अपनेपन की भावना और पाँचवी है इन सबका फाउण्डेशन आत्मिक–स्वरूप की भावना। इनको कहा जाता है सद्भावनायें वा पॉजिटिव भावनायें।
तो अव्यक्त बनना अर्थात् ये सर्व सद्भावनायें रखना। अगर इन सद्भावनाओं के विपरीत हैं तब ही व्यक्त भाव अपनी तरफ आकर्षित करता है। व्यक्त भाव का अर्थ ही है इन पांचों बातों के निगेटिव अर्थात् विपरीत स्थिति में रहना। इसके विपरीत को तो स्वयं ही जानते हो, वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। जब भावना विपरीत होती है तो अव्यक्त स्थिति में स्थित नहीं हो सकते।
माया के आने के विशेष यही दरवाजे हैं। किसी भी विघ्न को चेक करो उसका मूल प्रीत के बजाए विपरीत भावनायें ही होती हैं। भावना पहले संकल्प रूप में होती है, फिर बोल में आती है और उसके बाद फिर कर्म में आती है। जैसी भावना होगी वैसे व्यक्तियों के हर एक चलन वा बोल को उसी भाव से देखेंगे, सुनेंगे वा सम्बन्ध में आयेंगे। भावना से भाव भी बदलता है। अगर किसी आत्मा के प्रति किसी भी समय ईर्ष्या की भावना है अर्थात् अपनेपन की भावना नहीं है तो उस व्यक्ति के हर चलन, हर बोल से मिसअण्डरस्टैण्ड (गलतफहमी) का भाव अनुभव होगा। वह अच्छा भी करेगा लेकिन आपकी भावना अच्छी न होने के कारण हर चलन और बोल से आपको बुरा भाव दिखाई देगा।
तो भावना भाव को बदलने वाली है। तो चेक करो कि हर आत्मा के प्रति शुभ भावना, शुभ भाव रहता है? भाव को समझने में अन्तर पड़ने से ‘मिसअण्डरस्टैण्डिंग‘ माया का दरवाजा बन जाती है। अव्यक्त स्थिति बनाने के लिए विशेष अपनी भावना और भाव को चेक करो तो सहज अव्यक्त स्थिति में विशेष अनुभव करते रहेंगे।
कई बच्चे अशुद्ध भावना वा अशुभ भाव से अलग भी रहते हैं। लेकिन एक है शुभ भाव और भावना; दूसरी है व्यर्थ भाव और भावना, तीसरी है साधारण भावना वा भाव क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् सेवा-भाव। तो साधारण भावना वा साधारण भाव नुकसान नहीं करता लेकिन जो ब्राह्मण जीवन का कर्तव्य है शुभ भावना से सेवा-भाव, वह नहीं कर सकते हैं इसलिए ब्राह्मण जीवन में जो सेवा का फल जमा होने का विशेष वरदान है उसका अनुभव नहीं कर सकेंगे। तो साधारण भावना और भाव को भी श्रेष्ठ भावना, श्रेष्ठ भाव में परिवर्तन करो। चेक करेंगे तो चेंज करेंगे और अव्यक्त फरिश्ता बाप समान सहज बन जायेंगे। तो समझा, अव्यक्त वर्ष कैसे मनाना है?
‘शुभ भावना‘ मन्सा–सेवा का बहुत श्रेष्ठ साधन है और ‘श्रेष्ठ भाव‘ सम्बन्ध–सम्पर्क में सर्व के प्यारे बनने का सहज साधन है। जो सदा हर एक प्रति श्रेष्ठ भाव धारण करता वही माला का समीप मणका बन सकता है क्योंकि माला सम्बन्ध–सम्पर्क में समीप और श्रेष्ठता की निशानी है। कोई किसी भी भाव से बोले वा चले लेकिन आप सदा हर एक प्रति शुभ भाव, श्रेष्ठ भाव धारण करो। जो इसमें विजयी होते हैं वही माला में पिरोने के अधिकारी हैं। चाहे सेवा के क्षेत्र में भाषण नहीं कर सकते, प्लैन नहीं बना सकते लेकिन जो हर एक से सम्बन्ध–सम्पर्क में शुभ भाव रख सकते हैं, तो यह ‘शुभ भाव’ सूक्ष्म सेवा-भाव में जमा हो जायेगा।
ऐसे शुभ भाव वाला सदा सभी को सुख देगा, सुख लेगा। तो यह भी सेवा है और यह सेवा–भाव आगे नम्बर लेने का अधिकारी बना देगा इसलिए माला का मणका बन जायेंगे। समझा? कभी भी ऐसे नहीं सोचना कि हमको तो भाषण करने का चांस ही नहीं मिलता है, बड़ी–बड़ी सेवा का चांस नहीं मिलता। लेकिन यह सेवा–भाव का गोल्डन चांस लेने वाला चान्सलर की लाइन में आ जायेगा अर्थात् विशेष आत्मा बन जायेगा, इसलिए इस वर्ष में विशेष यह ‘शुभ भावना‘ और ‘श्रेष्ठ भाव’ धारण करने का विशेष अटेन्शन रखना।
अशुभ भाव और अशुभ भावना को भी अपने शुभ भाव और शुभ भावना से परिवर्तन कर सकते हो। सुनाया था ना कि गुलाब का पुष्प बदबू की खाद से खुशबू धारण कर खुशबूदार गुलाब बन सकता है। तो आप श्रेष्ठ आत्मायें अशुभ, व्यर्थ, साधारण भावना और भाव को श्रेष्ठता में नहीं बदल सकते वा कहेंगे क्या करें, इसकी है ही अशुभ भावना, इनका भाव ही मेरे प्रति बहुत खराब है, मैं क्या करूँ? ऐसे तो नहीं बोलेंगे ना!
आपका तो टाइटल ही है विश्व–परिवर्तक। जब प्रकृति को तमोगुणी से सतोगुणी बना सकते हो; तो क्या आत्माओं के भाव और भावना के परिवर्तक नहीं बन सकते? तो यही लक्ष्य बाप समान अव्यक्त फरिश्ता बनने के लक्षण सहज और स्वत: लायेगा। समझा, कैसे अव्यक्त वर्ष मनाना है? मनाना अर्थात् बनना यह ब्राह्मणों की भाषा का सिद्धान्त है। बनना है ना कि सिर्फ मनाना है? तो ब्राह्मणों में वर्तमान समय इसी पुरुषार्थ की विशेष आवश्यकता है और यही सेवा माला के मणकों को समीप लाए माला प्रसिद्ध करेगी। माला के मणके अलग–अलग तैयार हो रहे हैं। लेकिन माला अर्थात् दाने, दाने की समीपता। तो यह दो बातें दाने की दाने से समीपता का साधन हैं। इसको ही कहा जाता है सपूत अर्थात् सबूत देने वाले। अच्छा!
“चारों ओर के सर्व स्नेह का सबूत देने वाले सपूत बच्चों को, सदा बाप समान फरिश्ता बनने के उमंग–उत्साह में रहने वाली आत्माओं को, सदा सर्व प्रति श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ भाव रखने वाली विजयी आत्माओं को, सदा हर आत्मा को श्रेष्ठ भावना से परिवर्तन करने वाले विश्व–परिवर्तक आत्माओं को, सदा विजयी बन विजय माला में समीप आने वाले विजयी रत्नों को बापदादा का अव्यक्त वर्ष की मुबारक के साथ–साथ याद–प्यार और नमस्ते।“
दादियों से मुलाकात: जानकी दादी से:-
अपनी हिम्मत और सर्व के सहयोग की दुआयें शरीर को चला रही हैं। समय पर शरीर भी सहयोग दे देता है। इसको कहते हैं एक्स्ट्रा दुआओं की मदद। तो विशेष आत्माओं को यह एक्स्ट्रा मदद मिलती ही है। थोड़ा शरीर को रेस्ट भी देना पड़ता है। अगर नहीं देते हैं तो वो खिटखिट करता है। जैसे औरों को जो चाहता है वो दे देते हो ना! किसको शान्ति चाहिए, किसको सुख चाहिए, किसको हिम्मत चाहिए तो देते हो ना! तो शरीर को जो चाहिए वो भी दे दिया करो। इसको भी तो कुछ चाहिए ना! क्योंकि यह शरीर भी अमानत है ना! इसको भी सम्भालना तो पड़ता है ना! अच्छी हिम्मत से चला रही हो और चलना ही है। समय पर आवश्यकता अनुसार जैसे शरीर आपको सहयोग दे देता है, तो आप भी थोड़ा-थोड़ा सहयोग दे दो। नॉलेजफुल तो हो ही।
अच्छा है क्योंकि इस शरीर द्वारा ही अनेक आत्माओं का कल्याण होना है। आप लोगों के सिर्फ साथ के अनुभव से ही सब बहुत बड़ी मदद का अनुभव करते हैं। हाज़िर होना भी सेवा की हाज़िरी हो जाती है। चाहे स्थूल सेवा न भी करें लेकिन हाजिर होने से हाजिरी पड़ जाती है। सेकेण्ड भी सेवा के बिना न रह सकते हो, न रहते हो, इसलिए सेवा का जमा का खाता जमा हो ही रहा है। बहुत अच्छा पार्ट बजा रही हो, बजाती रहेंगी। अच्छा पार्ट मिला है ना! इतना बढ़िया पार्ट ड्रामा अनुसार दुआओं के कारण मिला है! ये ब्राह्मण जन्म के आदि के संस्कार ‘रहमदिल‘ और ‘सहयोग की भावना‘ का फल है। चाहे तन से, चाहे मन से रहमदिल और सहयोग की भावना का पार्ट आदि से मिला हुआ है इसलिए उसका फल सहज प्राप्त हो रहा है। शारीरिक सहयोग की भी सेवा दिल से की है इसलिए शरीर की आयु इन दुआओं से बढ़ रही है। अच्छा!
दादी जी से:-
अच्छा, सर्विस करके आई हो! यह ड्रामा भी सहयोगी बनता है और ये शुभ भावना का फल और बल मिलता है। संगठित रूप में शुभ भावना ये फल देती है। तो अच्छा रहा और अच्छे ते अच्छा रहना ही है। अभी तो और भी अव्यक्त स्थिति द्वारा विश्व की आत्माओं को और सेवा में आगे बढ़ने का बल मिलेगा। सिर्फ ब्राह्मणों के दृढ़ परिवर्तन के लिए विश्व-परिवर्तन रुका हुआ है। ब्राह्मणों का परिवर्तन कभी पॉवरफुल होता है, कभी हल्का होता है। तो ये हलचल भी कभी जोर पकड़ती है, कभी ढीली होती है। सम्पन्न बनने तो यही ब्राह्मण हैं। अच्छा!
चन्द्रमणि दादी से:-
बेहद की चक्रवर्ती बन गई, आज यहाँ, कल वहाँ! तो इसको ही कहा जाता है विश्व की आत्माओं से स्वत: और सहज सम्बन्ध बढ़ना। विश्व का राज्य करना है, विश्व–कल्याणकारी हैं, तो कोने–कोने में पांव तो रखने चाहिए ना इसलिए देश–विदेश में चांस मिल जाता है। प्रोग्राम न भी बनाओ लेकिन यह ड्रामानुसार संगम की सेवा भविष्य को प्रत्यक्ष कर रही है इसलिए बेहद की सेवा और बेहद के सम्बन्ध–सम्पर्क बढ़ रहे हैं और बढ़ते रहेंगे। स्टेट का राजा तो नहीं बनना है, विश्व का बनना है! पंजाब का राजा तो नहीं बनना है! वो तो निमित्त ड्युटी है, ड्युटी समझकर निभाते हो। बाकी ऑर्डर करें कि मधुबन निवासी बनना है, तो सोचेंगे क्या कि पंजाब का क्या होगा? नहीं। जब तक जहाँ की जो ड्युटी है, बहुत अच्छी तरह से निभाना ही है।
जानकी दादी से:-
अभी कहें कि आप फॉरेन से यहाँ आ जाओ तो बैठ जायेंगी ना! बाप भेजते हैं, खुद नहीं जाती हो। आखिर तो सभी को यहाँ आना ही पड़ेगा ना! इसलिए बार–बार आते–आते फिर रह जायेंगे। चक्कर लगाकर आ जाते हो ना! इसलिए न्यारे भी हो और सेवा के प्यारे भी। देश और व्यक्तियों के प्यारे नहीं, सेवा के प्यारे। अच्छा! सबको याद देना, अव्यक्त वर्ष की मुबारक देना।
वरदान:- “ज्ञान को लाइट और माइट के रूप से समय पर कार्य में लगाने वाले ज्ञानी तू आत्मा भव!”
ज्ञान अर्थात् नॉलेज और नॉलेज इज़ लाइट, माइट कहा जाता है। जब लाइट अर्थात् रोशनी है कि ये रांग है, ये राइट है, ये अंधकार है, ये प्रकाश है, ये व्यर्थ है, ये समर्थ है तो लाइट और माइट से सम्पन्न आत्मा कभी अंधकार में नहीं रह सकती। अगर अंधकार समझते हुए भी अंधकार में है तो उसे ज्ञानी वा समझदार नहीं कहेंगे। ज्ञानी तू आत्मा कभी भी रांग कर्मो के, संकल्पों के वा स्वभाव–संस्कार के वशीभूत नहीं हो सकती।
स्लोगन:- “हीरो पार्ट बजाने के लिए ज़ीरो बाप के साथ कम्बाइन्ड होकर रहो। “ – ओम् शान्ति।
मधुबन मुरली:- सुनने के लिए लिंक को सेलेक्ट करे > “Hindi Murli”
गीत:- “ज्योति बिंदु परमात्मा से…………”: , अन्य गीत सुनने के लिए सेलेक्ट करे > “PARMATMA LOVE SONGS”.
किर्प्या अपना अनुभव साँझा करे।
अच्छा – ओम् शान्ति।
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नोट: यदि आप “मुरली = भगवान के बोल“ को समझने में सक्षम नहीं हैं, तो कृपया अपने शहर या देश में अपने निकटतम ब्रह्मकुमारी राजयोग केंद्र पर जाएँ और परिचयात्मक “07 दिनों की कक्षा का फाउंडेशन कोर्स” (प्रतिदिन 01 घंटे के लिए आयोजित) पूरा करें।
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